सांवली सी इश्क
सांवली सी इश्क
आईना में रूप निहारती बार - बार ,
सांवली सी वो लड़की , कुछ बुदबुदाती ,
फिर खिलखिला कर मुस्कुराती ,
उभर आती गाल पर खूबसूरत डिम्पल ,
तलाश रही थी अंदर संपूर्ण स्त्री ,
जो पुरुषों के ख्यालों में
रचता - बसता 'दूधिया चाँद' सी स्त्री l
आईना मे रूप निहारती बार - बार ,
सांवली सी वो लड़की ,
उनकी भी ख्यालों में थी ,
सूरज सा दमकता लड़का,
दिल में खलल होती थी ,
खूद में चांद सी आकृति l
वह पढ़ रही थी,
कविताएँ सौंदर्य के
स्त्री के शरीर का निरवस्त्र वर्णन
जैसे स्त्री काम - वासना की वस्तु !
खोज लेती कई गुण खुद में
मुस्कुराती तो बन जाती है
'डिंपल' उसके गाल पर
एक 'लट' बिखेर, सज- संवर कर चलती
यू बलखाती ..
मोहब्बत करती एक लड़के से
उसमें कुछ ऐसा जो
उनकी ख्यालों से होती थी कुछ मेल l
भयभीत होकर कभी-कभी
अपनी सांवली सूरत पर
प्रश्न उठती है 'मन' में
क्या सांवली सी होती है ,इश्क भी .. !
खिल आती है चेहरे पर फिकी मुस्कान !
कभी नहीं देखा अखबारों में छपी इस्तिहार-
'सांवली , सुंदर , पढ़िलिखी, संस्कारी लड़की चाहिए।
तब सांवली लड़की की होती सीना - चाक !
उनसे, मेरी है, बेपनाह मोहब्बत l
उनको, मुझ से है , नहीं मालुम !
जब होगी वार्तालाप सौंदर्य पर
तब जीतेगी आंतरिक सुंदरता मेरी।
उनसे करुंगी सवाल यह :-
मोहब्बत' भी सांवली होती है ?