आखरी वक़्त
आखरी वक़्त


गलतफहमियों के शिकार वो कुछ यूं हुए,
देखते देखते रिश्ते के हज़ारों टुकड़े हुए,
कलम कागज और कानून ने उन्हें अब अलग कर दिया,
दरार को और गहरा कर दिया,
अब एक दूसरे का साथ सिर्फ तकलीफ देता है,
यूं अलग होना ही सही लगता है,
वो रिश्ता रखे ही क्यों जिसका कोई आज कोई कल नहीं,
थोड़े गलत हम थे पूरे सही तो तुम भी नहीं,
यूं एक दस्तखत ने पवित्र बंधन को तोड़ दिया,
आज आखिरकार दोनों ने अपने अपने रास्तों को चुन ही लिया,
अब दोनों तनहा शाम को खुद से कई सवाल करते है,
क्या रिश्तों के धागे इतने कमजोर होते है,
याद दिल से जाती नहीं,
कोई कोशिश अब काम आती नहीं,
अलग हो कर दूरी अब चुभती है,
आंखें दीदार को दिन रात तरसती है,
सही गलत की कशमकश में ये दोनों क्यों उलझे है,
क्यों ये धागे इतने उलझे है,
काश थोड़ा यकीन कर लेते,
थोड़ा उन्हें समझा देते थोड़ा खुद समझ लेते,
कोई कमी तो थी वरना यूं अलग ना होते,
विश्वास की जगह मन में इतने शक ना होते,
क्यों मेरी आंखों में सच उन्हें दिखा नहीं,
यूं अलग होने का फैसला आखिर किस हद तक सही,
क्यों इस रास्ते को उन्होंने चुना,
क्यों दिल और दिमाग में से उन्होंने दिमाग को चुना,
थोड़ा भरोसा कर लेते,
हमारे वो बीते पल वो वादे याद कर लेते,