आज की अध्यापिका
आज की अध्यापिका
मैं हूं एक अध्यापिका प्यारी
एक अकेली सौ पर भारी
समाज ने मुझे सौंपी सभी बच्चों की जिम्मेदारी
कभी प्यार किया कभी डांटा
कभी समझाने को लगा दिया चांटा
पर सब बच्चे बनने लगे सभ्य और संस्कारी
शिक्षा प्राप्त की हमसे और रहे सदा ही आज्ञाकारी
फिर इसी समाज ने मेरे हाथों में कानून की मेहंदी सजा दी
बच्चों को लगा लो हो गई है अब बेबस और बेचारी
खूब मचाया हुड़दंग
कभी चिढ़ाया कभी किया नुकसान भारी
मैं दूर से ही उन्हें रही पुकारती
कभी उनको कभी अपने हाथों में लगी मेहंदी को निहारती
पहले हम पहरेदार बन उन्हें रोकते थे टोकते थे
गलत काम करने से पहले वह भी सौ बार सोचते थे
पर अब दूर से ही पहरेदार बन उन पर नजर रखते हैं
अपने सामने चोरी हो तो जाने दे फिर मालिक को खबर करते हैं
अरे हम दुश्मन नहीं शुभचिंतक है भरोसा तो कीजिए
नहीं तो आप ही अपने बच्चों की बागडोर संभाल लीजिए
नहीं तो आप ही अपने बच्चों की बागडोर संभाल लीजिए।