कठपुतली
कठपुतली


धागों में लिपटी वो कठपुतली उलझ सी गई,
कुछ सवाल अपने भीतर रख वो मौन हो गई,
वास्तविकता और कल्पना थी क्या,
उसके बीच आखिर मैं थी क्या,
कहानी के हिसाब से मंच बदलता गया,
ताने बाने ने उसे कस कर जकड़ लिया,
अनेकों कहानियों को उसने था जिया,
पर उसकी कहानी का ना लेखक न ही किरदार था,
उलझे धागों में दिल चुप और शरीर सांस लेता है,
उम्दा कारीगर ने कठपुतली क्या खूब सिली है,
बूटे हर ओर जड़े हैं और किनारे पर जरी है,
जी भर के वो कभी जी नहीं थी,
पटकथा में पारदर्शिता वो खोजती रही,
मंच पर मुस्कराहट और एकांत में सिसकियां थी,
पर्दा गिरा और वो अपने आप की खोज में थी,
बरसों थे बीते ओर धागे थे टूटे,
नई कठपुतली और नए किरदार थे,