मुझे क्या हक है कि मैं यूहीं मर जाऊं. ..
मुझे क्या हक है कि मैं यूहीं मर जाऊं. ..
मुझे क्या हक है कि मैं यू हीं मर जाऊं
अपने मन का अंधेरा अपनों के जीवन में भर जाऊं
माना कि दुख का नहीं है पार
पर मैं भी कहां अकेली हूं यार
मुझमें मेरे कितने रूप समाए हैं
सब रिश्तों ने मिलकर मेरे कितने नाम बनाए हैं
कभी मां कभी बेटी कभी पत्नी हूं मैं
कभी गुरु कभी शिष्या कभी मित्र हूं मैं
कभी बहन कभी बहू कभी ननद का रिश्ता बनाया है
तो क्या हुआ आज इनमें से किसी एक पर संकट आया है
किसी एक के दुख से किसी दूसरे की हार ना होगी
मेरा ही एक रूप दवा बनेगा जब दूसरा होगा रोगी
मुझे याद करना होगा उन सुखद बातों को
मुझे याद करना होगा इन रिश्तों से जु़ड़े जज्बातों को
क्या मेरे जीवन पर सिर्फ मेरा अधिकार है
उनका क्या जिन्हें मुझसे असीम प्यार है
मैं कैसे उनकी भावनाओं की हत्यारिन बन जाऊ
मुझे क्या हक है कि मैं यू हीं मर जाऊं
मुझे क्या हक है कि मैं यू हीं मर जाऊं!