आईने में भी तन्हा
आईने में भी तन्हा
आईने में भी तन्हा हूँ मैं कितने बरसों से
परछाई भी मेरी होकर मेरी क्यों नहीं है
जी रही हूँ मैं किसी की जरूरतों में अक्सर
किसी को भी यहाँ मेरी ज़रूरत क्यों नहीं है
आईने के उस पार जो बसी है एक दुनिया
दिखता है मकान वो मेरा घर क्यों नहीं है
गुजर गया है वक़्त लेकर मेरी ख़्वाहिशों को
ख़्वाहिशों से गुजरने का वक़्त क्यों नही है
सवाल करता है ये आईना अब मुझसे हर पल
जो दर्द को बेपर्दा कर दे वो आईना क्यों नहीं है