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Kusum Joshi

Tragedy

3  

Kusum Joshi

Tragedy

आह्वाहन : युगदृष्टा का

आह्वाहन : युगदृष्टा का

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सीता का अपहरण एक बार,

लंका का विध्वंस बना,

द्रोपदी के चीर हरण से,

महाभारत का युद्ध ठना


कभी अगर ग़लती में ऋषि से,

शापित जो हो गयी अहिल्या,

श्रीराम ने स्वयं पहुंचकर ,

उसका तब उद्धार किया।


जब कभी अन्याय हुआ,

सीता की अग्नि परीक्षा में,

कम्पित हो फट पड़ी धरा तब,

माता की उस पीड़ा में।


एक बार नहीं बार-बार,

इतिहास ने बतलाया है,

नारी की क्रोध ज्वाल के सम्मुख,

देवों ने भी शीष झुकाया है।


सतयुग ,द्वापर ,त्रेतायुग की,

सबकी यही कहानी है,

जब भी माता सहे अपमान की पीड़ा,

विध्वंस की ये निशानी है।


लेकिन, सृजनशील है माता,

उसने कभी नहीं ये चाहा है,

वो बने विनाश का कारण,

उसको कभी नहीं ये भाया है।


लेकिन जब अन्याय कभी भी,

पराकाष्ठा में पहुँचा है,

केश खुले कर द्रोपदी ने तब,

रण को न्योता भेजा है।


जब कभी अधर्म खींच माता को,

द्यूत सभा में लाता है,

हर एक आंसू देवी का तब,

काल को आवाज़ लगाता है।


आना पड़ता है केशव को,

छोड़ द्वारिका तब रण में,

नारी का प्रण भगवान को,

सारथी तक बनाता है।


उस एक बार की घटना ने,

कैसा विध्वंस कराया था,

बड़े-बड़े से महारथियों को,

शर शय्या में लिटाया था।


अब तो निशदिन के द्रोपदियाँ,

सड़कों पर लूटी जाती हैं,

एक नहीं कितने दुःशासन के,

हाथों खींची जाती हैं।


बेटी बहनें नहीं सुरक्षित ,

अपने ही परिवारों में ,

बेची और खरीदी जाती,

माताएं बाजारों में।


अब तो कितने दुर्योधन ,

हर गलियों में मिल जाएंगे,

कितनी जंघा तोड़ भीम,

कितना लहू पी पाएंगे।


कितनी कसमें खाएंगे अर्जुन,

कितने कौरव मारेंगे,

तब तो थे सौ गिनती में,

पर आज नहीं गिन पाएंगे।


अब तो हर एक गली मोहल्ले,

दुर्योधन से भरे हुए,

कुछ तो नीच गिरे इतना कि,

रावण से भी बड़े बने।


तब थी लंका एक असुर दस,

राम लखन ने मार दिए,

अब तो देश बना लंका ,

और उसमें सब हैं असुर भरे।


रघुनंदन भी आज अकेले,

इनसे क्या लड़ पाएंगे,

और हनुमंत पूंछ से अपनी,

लंका कितनी जलाएंगे?


वैदेही के अश्रु से जो ,

अशोक वाटिका भीगी थी,

करुण स्वरों से पांचाली के,

द्यूत सभा जो गूंजी थी।


आंसुओं के सैलाब ने,

लंका का वैभव डुबा दिया,

रूदन बन चीत्कार गए,

और अंत हस्तिनापुर का आ गया।


आज भी चीत्कार करुण सी,

रोज सुनाई देती हैं,

कठुवा , उन्नाव, हैदराबाद में,

अश्रु की नदियां बहती हैं।


आज भी बंधक है नारी,

अशोक वाटिका बदल गयी ,

चीख भी सारी वो ही हैं,

पर द्यूत सभा ये है नई।


आज असुर ने भेष बदल लिए,

ये मंत्री हैं नेता शिक्षक हैं,

और कहीं शर्मिंदा करते,

अपने ही बंधु-बांधव हैं।


आज जरूरत फ़िर से माधव,

तेरे चक्र उठाने की,

या राघव की धनु टंकार से,

लंका को पुनः जलाने की।


जिस तेज गति से पाप बढ़ रहा,

दोनों को साथ में आना होगा,

बोझ बढ़ रहा धरती का,

प्रभु तुमको पार लगाना होगा।


फिर से एक प्रलय चाहिए,

युग का अंत अनन्य हुआ,

कुरुक्षेत्र बना दो पुनः धरा को,

सीमा का अब अंत हुआ।


पुनः पधारो रघुनन्दन,

अब रामसेतु को पार करो,

है कमल नयन है मोर मुकुट,

पुनः सारथी बन चक्र प्रहार करो।


आज जानकी शोषित है,

और पांचाली भी रोती है,

अंत करो फिर दुष्टों का,

और हल्का धरा का भार करो।



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