आदि तू ही अंत भी
आदि तू ही अंत भी
दुर्गा तू ही गौरी तू ही,
लक्ष्मी तू विद्यारूप है,
काली तू ही कपालिनी,
कभी रौद्र तेरा स्वरुप है,
जन्म देने वाली तू,
तू ही काल का अवतार है,
प्रेम की मूरत तू ही,
तू खड्ग है तलवार है,
नव जीव को निज गर्भ में,
धारण सदा करती है तू,
सृष्टि ये चलती तुझसे ही,
देवों को भी रचती है तू,
आदि तू ही अंत तू,
मंज़िल तू ही राह तू,
कभी शांत सा संगीत है,
कभी शक्ति की हुंकार तू,
कभी वक्ष से अपने लगा,
तू सींचती है ये जहां,
ममता का है सागर तू ही,
तुझ जैसा कोई नारी कहाँ,
तू नर का आधा अंग है,
अर्धांगिनी कहलाती है,
तेरे बिना अधूरा पुरुष,
पौरुष तू ही बन जाती है,
माँ का है आँचल तू ही,
तू ही बहन का प्यार है,
कभी पुत्री बन वात्सल्य देती,
तू जीव का श्रृंगार है,
सुख सदा ही बांटती,
अश्रु नयनों में रख लेती है,
सहनशीलता के चरम तक तू,
क्रोध को पी लेती है,
पर सब्र की सीमा के बाहर,
तू प्रलय पर्याय है,
विध्वंस के तूने यहां,
कितने लिखे अध्याय हैं,
याद रखना ये सदा,
तू ही रावण का काल है,
महाभारत की प्रेरणा तू,
देवों की सुदृढ़ ढाल है,
कमज़ोर ना ख़ुद को समझ,
शक्ति तुझमें अनन्त है,
जो सृष्टि की रचना बदल दे,
तू ही आदि है तू ही अंत है।।