९० के दशक के स्वर्णिम लम्हे
९० के दशक के स्वर्णिम लम्हे
आज चलते हैं ९० के दशक के दिनों की ओर,
जब सुविधाएं व साधन थे पर सपनों में जान थी भरपूर
नोटों का मूल्य था काम पर उनकी अहमियत अथाह थी,
रिक्शा और बैलगाड़ी की गति कम थी पर आँखों में
आशा की ज्योत निरंतर प्रज्ज्वलित थी।
धरती पर कदम थे पर मंज़िल अपनी चाँद व सूरज थी,
वो भी क्या दिन थे जब सफलता की भूख
परिस्थितियों व मुश्किलों से ना कभी हारी थी .
वो भी क्या दिन थे जब हम तुम थे अजनबी और
क्षण भर मिलने की कसक बहती थी लहर की तरह,
न ईमेल थी ना ही व्हाट्सप्प, समाचार पतर।
लिखते थे कलम से क्यूंकि कंप्यूटर के दर्शन दुर्लभ थे तब,
पर बोलों में जान थी और सोच में उत्कृष्ता व भावनाओं में आत्मीयता थी तब.
ना कोई हवाईजहाज थे ना ही सदी के आधुनिक साधन जीवनशैली
ज़िन्दगी आम थी पर बहुत सरल थी, न कोई बैर थे मन में ना ही कोई बैरी
आज २१वी सदी की ऐशो आराम की जिंदगी में रख तो दिए कदम,
पर कसक की भाँती वो ९० का दशक अभी भी
स्वर्णिम लम्हों की यादों के साथ संग रहता है प्रतिपल ...