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Anshu Shri Saxena

Abstract

4.5  

Anshu Shri Saxena

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जीवन की साँझ

जीवन की साँझ

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सवेरे सवेरे मैं नाश्ता बनाने में तथा बेटे ,बहू तथा पोते का टिफ़िन बनाने में व्यस्त थी तभी सूरज ने आवाज़ लगाई , सुनो एक प्याली चाय मिल सकती है क्या ? और ज़रा तौलिया निकाल दो तो नहा भी लूँ । उफ़्फ़ ! कोई काम ख़ुद भी कर लिया करो...मन ही मन मैं बुदबुदायी और गैस पर एक तरफ़ चाय बनाने के लिये पानी चढ़ा ही रही थी कि नन्हा रिशू आकर मेरे घुटनों से लिपट गया...दादी , मेरी टाई और बेल्ट ढूँढ दीजिये ना , नहीं मिल रही है....वरना मम्मा डाँटेंगी ।अब मैं गैस बन्द कर रिशू की टाई बेल्ट ढूँढने लगी। मेरी रोज़ की यही दिनचर्या है , पति , बेटे बहू एवं पोते के बीच चकरघिन्नी सी घूमती रहती हूँ और सभी की फ़रमाइशों को पूरा करते करते कब पूरा दिन निकल जाता है पता ही नहीं चलता।

मेरे पति सूरज , बड़े सरकारी अफ़सर रह चुके हैं , अब सेवानृवित्ति के बाद हम अपने बेटे शशांक व बहू रीमा के साथ रहते हैं ।शशांक और रीमा दोनों ही ऑफ़िस जाते हैं और नन्हें रिशू ने अभी ही स्कूल जाना शुरू किया है ।

रिशू की टाई बेल्ट ढूँढ कर रसोई की तरफ़ जा ही रही थी , कि सूरज की आवाज़ कानों में पड़ी....क्या यार , अभी तक चाय नहीं बनी ? माँ हमारा नाश्ता लगा दो , कहते हुए शशांक भी डाइनिंग टेबल पर आ बैठा । “ माँ आज लंच में चपाती की जगह पराँठे रखियेगा” रीमा ने भी अपने कमरे से आवाज़ लगाई ।

शशांक , रीमा और रिशू को भेजने के बाद दो पल की फ़ुरसत मिली तो मैं भी अपने लिये चाय का प्याला लेकर बैठ गयी । चाय पीते हुए अचानक ही मेरी नज़र सामने लगे आइने पर पड़ी ।अपना अक्स आइने में देख मैं अचानक चौंक पड़ी....ओह ! कैसी लगने लगी हूँ मैं ? बेतरतीब कपड़े , बालों से झांकती सफ़ेदी और झुर्रियों से काला पड़ता चेहरा....सहसा अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ।क्या मैं वही हूँ जिसकी ख़ूबसूरती और गुणों की मिसालें दी जाती थीं । मुझे याद है , मेरी सासु माँ हर जगह बड़े गर्व से बताया करती थीं “ मैं अपने सूरज के लिये कितनी पढ़ी लिखी , सुन्दर और सुघड़ बहू ढूँढ कर लाई हूँ “

अपना अनजाना सा अक्स आइने में देख मैंने एक निर्णय लिया। और फिर अन्य कामों में संलग्न हो गई ।

अगले दिन सुबह सुबह दरवाज़े पर दस्तक हुई तो रीमा ने दरवाजा खोला। सामने एक अनजान महिला को देख उसने मुझे आवाज़ लगाई....माँ आपने किसी को बुलाया है क्या ? मैंने भी अपने कमरे से उत्तर दिया , “ हाँ , काम वाली बाई है , उसको बता दो , लंच और नाश्ते में क्या बनेगा” तब तक रीमा , शशांक और सूरज मेरे कमरे में आ चुके थे।

मैंने उनकी प्रश्नवाचक निगाहों का उत्तर देते हुए कहा , आज से मैंने घर के कामों के लिये बाई रखने का निर्णय लिया है । “ पर माँ , आप फिर पूरा दिन बोर नहीं हो जायेंगी ? घर के कामों में आपका मन लगा रहता है “ रीमा झिझकते हुए बोली। मैंने उसे मुस्कुरा कर उत्तर दिया....तुम चिन्ता न करो बेटा , मैं आज बाज़ार से पेंटिंग का सामान लाऊँगी ।मैं अपने पेंटिंग और लिखने के शौक़ को फिर से ज़िन्दा करूँगी , जो जीवन की आपाधापी में कहीं बहुत पीछे छूट गये थे।

ये कहते हुए मेरी नज़रें सूरज से जा मिलीं ।उनकी आँखों में मेरे लिये स्नेह छलक रहा था , वे मुस्कुरा कर बोले....चाय पियोगी ? मैं अभी बना कर लाता हूँ । मैंने हाँ में सिर हिलाया और मन ही मन हँस पड़ी ।


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