भ्रमजाल
भ्रमजाल
स्टेशन पर पहुँचते ही मैंने बेचैनी से चारों ओर नज़रें दौडाईं, क्योंकि मेरे पास सामान बहुत अधिक था और ट्रेन छूटने में दस मिनट से भी कम का समय बचा था और प्लेटफ़ार्म बहुत दूर था।
तभी सुरीली आवाज़ मेरे कानों में पड़ी “कौन सी ट्रेन है बाबू ? किस प्लेटफ़ार्म पर जाना है ? चलिये हम पहुँचा दें “ मैंने पलट कर देखा तो दो अधेड़ उम्र की महिलायें, सामान ढोने के ठेले के साथ खड़ी थीं।
“राजधानी है बेंगलोर वाली, प्लेटफ़ार्म बारह से...पर तुम दोनों नहीं पहुँचा पाओगी क्योंकि ट्रेन छूटने में बहुत कम समय बचा है “ मैं थोड़ा बेरुख़ी से बोला।
“अरे हमें मौक़ा तो दो बाबू, जब ट्रेन पर बैठ जाओ तभी पैसे देना “
न जाने क्या सोच कर मैंने सहमति में सिर हिलाया और उन महिलाओं की सहायता से जल्दी जल्दी अपना सामान ठेले पर रखने लगा।सामान रख वे दोनों महिलायें तेज़ी से ठेला खींचने लगीं। उनकी फुर्ती देख कर मैं हैरान था क्योंकि उनके साथ चलने के लिये मुझे लगभग दौड़ना पड़ रहा था। उन दोनों महिलाओं ने मुझे समय पर ट्रेन में पहुँचा दिया था। जब मैं उन्हें पैसे देने लगा तो उनमें से एक महिला बोली
“फिर किसी औरत से न कहना बेटा कि कोई काम उससे न हो पायेगा। हम औरतें हैं इसलिये लोग हमें काम देने से कतराते हैं...सभी सोचते हैं कि हमसे ज़्यादा मेहनत का काम नहीं हो पायेगा। पर अगर हम ठान लें तो कोई भी काम हमारे लिये असम्भव नहीं। हमारे बच्चों ने हमें बेसहारा छोड़ दिया। भीख माँगने से तो अच्छा है न बेटा कि हम मेहनत करके अपना पेट पालें “
मुझे अपनी पुरुषवादी सोच पर ग्लानि हो रही थी। मैं यह भूल गया था कि औरत, पुरुष से शायद शारीरिक बल में कमज़ोर हो पर मानसिक रूप से कहीं अधिक मज़बूत और ताक़तवर होती है।आज मुझे अपने ही बुने भ्रमजाल से बाहर आ, आंतरिक प्रसन्नता की अनुभूति हो रही थी।