जीने की ललक
जीने की ललक


काशी का वृद्धाश्रम ऐसे वृद्ध जनों की शरणस्थली है, जिनकी जीने की इच्छा लगभग समाप्त हो जाती है और वे अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव में काशी में मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा रखते हैं। कमला, गौरी और पारो इसी वृद्धाश्रम में रहने वाली वृद्धाएँ थीं।
वे तीनों भी अपने जीवन से निराश हो चुकी थीं और इस वृद्धाश्रम में रह कर मृत्यु की प्रतीक्षा में एक एक दिन काट रही थीं।
कमला, गौरी व पारो पक्की सहेलियाँ थीं। अक्सर ही वे आश्रम के बाहर पड़ी बेंच पर बैठ जातीं और अपने सुख दुख साझा करतीं।एक शाम जब वे इसी बेंच पर बैठीं थीं, उन्हें किसी छोटे बच्चे की रोने की आवाज़ सुनाई दी।
गौरी ने बाहर जाकर देखा तो सड़क के किनारे
कूड़े के ढेर में एक नवजात कन्या लावारिस हालत में पड़ी थी, जिसे कुत्ते अपना भोजन बनाने के प्रयास में थे। शायद किसी ने लोक लाज के भय से उसे यहाँ मरने के लिये छोड़ दिया था। बच्ची की हालत बहुत नाज़ुक थी।
गौरी ने झट उसे अपने आँचल में समेट लिया और अंदर ले आई। कमला रसोई से दूध गर्म कर लाई और पारो ने बच्ची को दूध पिलाया। आश्रम के मैनेजर से विनती कर तीनों वृद्धाओं ने बच्ची को पालने की पूरी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। बच्ची की निश्छल मुस्कान देख, वे तीनों भी हँसने, खिलखिलाने लगीं हैं और उनके जीवन से दुख और निराशा के बादल छँटने लगे हैं। नन्ही सी बच्ची के आने से तीनों वृद्धाओं में पुन: जीने की ललक जाग उठी है।