पुश्तैनी मकान
पुश्तैनी मकान
दीवार-ओ-दर उस मकान के
आपस में बातें करते हैं
जो दबी हुई हैं दरीचों में
उन यादों को ताज़ा करते हैं
देखा है हमने पुश्तों से
कि ज़माने कैसे बदलते हैं
अपनी ही आँखों के आगे
इन बच्चों के बच्चे पलते हैं
देखा है हँसना और रोना
महसूस भी हम सब करते हैं
साँस नहीं लेते तो क्या
साँसों को समेटे रखते हैं
जीवन के कौतूहल में
जो लोग बिसरने लगते हैं
उनकी इक-इक आवाज़ को हम
इन ईंटों में सहेजे रखते हैं
रोते हैं जो ये बाशिंदे
तो अपने भी आँसू बहते हैं
सुन ना पाऐ कोई तो क्या
कुछ बातें हम भी कहते हैं
इन बच्चों की किलकारियों से
हम भी सहसा खिल उठते हैं
जब रंग चलाते हैं वो हमपे
हम भी थोड़ा जी उठते हैं
अपने भी तो हमने ढाँचे
बनते बिगड़ते देखे हैं
कुछ टूटी, कुछ बनी दीवारें
कमरे यूँ घटते बढ़ते देखे हैं
कुछ प्राचीरों से बढ़ी है दूरी
कुछ फ़ासले पिघलते देखे हैं
कुछ सपने पूरे होते
कुछ अरमान बिखरते देखे हैं
नींव पड़ी थी जब अपनी
उस दिन को याद जो करते हैं
कुछ चेहरे धुँधले-धुँधले से तब
आँखों के आगे से गुज़रते हैं
ईंट गारे मिट्टी पानी से
अडिग नहीं हम बनते हैं
ये मज़बूती है पसीने की
मिस्त्री जो गारे में मिलाया करते हैं
आँधी पानी भूकम्प भी कितने
हम यूँ झेला करते हैं
कि आँच न आये उन पर जो
हम पर भरोसा रखते हैं
इस आँगन में गूँज रही हैं जो
कितनों के बचपन की यादें हैं
कितनी ही मशगूल सुबहें हैं
कितनी ही स्वप्निल रातें हैं
ये मकान नहीं जीवित घर है
और हम प्राचीरें वो माँऐं हैं
जो निहार तो सकती हैं बच्चों को
बस दुलरा ही न पाऐ हैं
देखेंगे क्या-क्या दिखलाती हैं
आने वाली जो पुश्तें हैं
ले ली जगह नई इमारतों ने
वृद्ध मकानों की, अब सुनते हैं
जाना है इक दिन तो हमको भी
बस इसी बात से डरते हैं
साथ हमारे क्या-क्या जाऐगा
वो भयावह कल्पना करते हैं
दीवार-ओ-दर उस मकान के
आपस में बातें करते हैं.....
' पारुल '