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स्वर्ग और जन्नत

स्वर्ग और जन्नत

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 सोचती हूँ कभी कि ऊपर भी क्या

स्वर्ग और जन्नत अलग बनाये होंगे तुमने,

 

शरीर से छूटी आत्मा के लिए भी

क्या अलग अलग दिशा निर्देश लगाये होंगे तुमने,

 

मुसलमां हो तुम, तुम जन्नत में जाओ

हिन्दू हो तो, स्वर्ग इधर है आ जाओ,

 

मरने के बाद भी क्या धर्म जाता है संग

या धर्म की ख़ातिर यूँ ही जीवन गंवाए होंगे हमने?

 

क्या हो गर पता चल जाये हमें

कि यहीं है धर्म का भेद ये

ऊपर तो सभी एक समान हैं आते

एक दूजे को मारकर भी पहुंचे हों जो

वहाँ एक साथ ही एक थाली में खाते

 

तो कितना मलाल रह जाएगा मन में

कि जीवन ही कम से कम जी आते

जन्नत और स्वर्ग सब एक हैं यहाँ

तो क्यों ना हंसी ख़ुशी साथ हम जीवन बिताते

 

जो देखी नहीं ऊपर जा के किसी ने

उस जन्नत की ख़ातिर क्यों जीवन नरक बनाते?

 

सोचती हूँ कभी...

 

 

                                  


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