बूढ़ा दर्ज़ी
बूढ़ा दर्ज़ी
बूढ़ी आँखों पर लगा के चश्मा
कोशिश करता था फिर वो
कड़वी दुनिया सी सुई के अंदर
पिरोने जीवन के धागे को
दो बेटे भी थे उसके
रहते थे अपनी दुनिया में जो
एक बेटी भी काश रही होती
तो पिरो देती ये धागा वो
तरस खाते हैं लोग उस पर
कि गर्व था बेटों पर जिसको
पढ़ लिख कर बड़े बने बेटे
सी रहा है अब भी कपड़े वो
किया नहीं क्या-क्या उसने
बेटों को सफल बनाने को
पर सफलता की नयी परिभाषा में
माँ-बाप कहीं गये हैं खो
आज ज़रूरत पड़ी जो उनकी
हर चीज़ सिखायी थी जिनको
वक्त ही उनपे रहा नहीं
कि मदद भी उसकी कर दें वो
हर ज़रूरत उसने की थी पूरी
माँगा बेटों ने जब भी जो
काश कि रखा होता कुछ पैसा
बुढ़ापे की अपनी ज़रूरत को
उसी की आज जमा पूँजी से
घर बना लिये बेटों ने दो
पर घर में उनके जगह नहीं थी
रख पाते माँ-बाप को जो
अरमान सजे नाती पोतों के
ब्याहा जब उन बेटों को
पता नहीं था घर की लक्ष्मी ही
अलग करेगी घर से उनको
कितने त्याग किये तब पाल के
बड़ा किया इन बच्चों को
अहसान नहीं करते माँ-बाप
पर इज्ज़त के पात्र तो हैं ही वो
ख़्याल नहीं मिलते उससे
लगता है अब उन बेटों को
फ़िर भी उनकी नाकामी ढकता है
पीढ़ी का अंतर कहके वो
बेटों को लायक बना दिया
दम थी उसके हाथों में वो
आज भले हैं धुँधलायीं आँखें
मिली है नज़र तजुर्बे की उसको
आज भी धागा पिरो ही लेगा
पिरोता गया है अब तक जो
झुका नहीं दुनिया के आगे
बेटों के आगे क्या झुकेगा वो