आँगन भारत माँ का
आँगन भारत माँ का
कल-कल करती नदियाँ हो,
और झर-झर गिरता झरना हो।
अमराई में कोयल का वो,
सात सुरों का गायन हो।
मैं जहाँ जन्म ले पलूँ-बढ़ूँ,
वो आँगन भारत माँ का हो।
जिसकी सरहद की रक्षा में,
खुद पर्वतराज हिमालय है।
आदिकाल से स्वार्थरहित,
पदवंदन करता सागर है।
मैं जहाँ जन्म ले पलूँ-बढ़ूँ,
वो आँगन भारत माँ का हो।
आँचल पर खेतों में फैली,
हरियाली की चादर हो।
जिस मिट्टी पर मिटने को,
तत्पर कोटि भुजाएँ हों।
मैं जहाँ जन्म ले पलूँ-बढ़ूँ,
वो आँगन भारत माँ का हो।
जहाँ साथ में हिन्दु-मुस्लिम,
सिख-ईसाई रहते हो।
लोकतंत्र से सजी हो संसद,
शासक जन के सेवक हो।
मैं जहाँ जन्म ले पलूँ-बढ़ूँ,
वो आँगन भारत माँ का हो।
स्वर्ग जहाँ घाटी में बसता,
अमृत गंगाजल में हो।
केसर की क्यारी की खुशबू,
दसों दिशा महकाती हो।
मैं जहाँ जन्म ले पलूँ-बढ़ूँ,
वो आँगन भारत माँ का हो।।
