मीनी और मैं
मीनी और मैं


मैं बस पर्वत की भाँति खड़ा ही रहा,
और वो चंचल नदी सी मचलती रही।
ईश्क दोनों तरफ से मुखर था मगर,
नजरें आपस में मिलकर सिमटती रही।।
दिल की धड़कन मेरी यूँ धड़कती रही,
और वो सीने से लग के ही गिनती रही।
लब थे खामोश, सांसें टकरा के यूँ,
प्रेमगाथा फिजा में ही लिखती रही।।
मन तो चंचल पतंगा सा, उड़ता रहा,
रूह में वो उतर कर संवरती रही।
जिस्म आगोश में इस कदर कैद था,
मन में कल्पित पिपासा सिसकती रही।
प्रेम का ये मिलन इतना अनुकूल था,
वादियाँ अपनी पलकें झपकती रहीं।
प्रेम के इस आलिंगन की परछाई भी,
चित्र प्रेम और मिलन के बनाती रही।।