पूर्ण से सम्पूर्ण की ओर
पूर्ण से सम्पूर्ण की ओर
कल तक जिसे सम्पूर्ण समझा था आज पूर्ण रह गया है
आज जिसे सम्पूर्ण मान रहे है, वो कल पूर्ण कहलायेगा
माँ बाप अपने विवेक अनुसार बच्चों को तैयार करते हैं
वास्तुकार अपने कौशल से, वस्तु का निर्माण करता है
यहाँ दोनों के द्वारा तैयार कृति, उनके लिये सम्पूर्ण है
लेकिन वही कृति, दूसरे रचनाकारों की नज़र में पूर्ण है
इंसान हमेशा अपने कौशल का, विकास करता रहता है
और उसी विकास से, पूर्ण से सम्पूर्ण की ओर बढ़ता है
कोई तैयार चीज, जहाँ और सुधार संभव हो, वो पूर्ण है
लेकिन, जिसमें और बेहतरी असम्भव हो, वो सम्पूर्ण है
किसी इंसान या चीज का पूर्ण होना तो समझ आता है
लेकिन क्या उसका सम्पूर्ण होना मुमकिन हो सकता है
क्या सम्पूर्ण महज किताबी, और खोखला शब्द नहीं है
क्योंकि सम्पूर्ण की समापन रेखा या अंत नहीं होता है
“योगी” ये जीवन पूर्ण से सम्पूर्ण की ओर का सफ़र है
यहाँ असली मुद्दा, इंसान की सोच और उसकी नज़र है