छलनी सीना
छलनी सीना
हर रोज होता है यहाँ छलनी सीना
हर उस माँ का
जिसने जना है सुपूत
वीर भारत भू का।
छेदती है तोपे गोलियाँ
कर बदन के पुर्जे पुर्जे
दर्द से कहार कर
आह भी ना निकलती हलक से।
डबडबाई आँखो मे सूख जाते हैं आँसू
दर्द भी बेजुबान होता है
जब सीमाएँ लाँघ जाती है
जख्म बदन पर लगे हुये।
शर्मशार हो जरा,
वीरों के बलिदानों पर
दोगले लोग, दो मुँहे
जो सफेद पोश बनकर घूमते हैं
नेतागीरी की मंडी में।
क्या होता नहीं है दिल,
उन हुक्मनारों के सीने में।
जो देते हैं हुक्म
इन्सान को इन्सान के कत्ल का।
हर रोज होता है यहाँ छलनी सीना
हर उस माँ का।।