साहित्य
साहित्य
साहित्य जैसा ही
हाल कुछ है साहित्यिकों का
पैसे के माप पर
बिकता है हुनर फनकार का
लगती है यहाँ बोलियां
रंडी जैसा ही हाल है
जिसके जेब में हो ढेर पैसा
कला उसकी कलासार है
बड़े बड़े शब्दों के बोझ तले
सिसकियाँ भर रही यहाँ कलमकारी
डिग्रीयों के भार पे
तुल रही है आज फनकारी
मोल नहीं रहा जज्बातोंको
क्या हो रही है पेशकश ?
जो फेंके पैसा,
उसे मिल रहा है भुषण
साहित्य बन चला है मंडी का धंधा
दलाल बन वो खाये पैसा
जिसे मोल नहीं कला की
जिसके खून में रंग नहीं कला का।