एक ग्लेशियर की मौत पर
एक ग्लेशियर की मौत पर


आज वो मर गया
वो धवल / शीतल
प्राणदायी सजल
पहली मौत, उस कुनबे की
कोई कोहराम न मचा
उसकी मौत पे
सही तो है
श्री देवी और ग्लेशियर के
मरने में
फर्क तो होता ही है!
किन्तु ये भी सत्य है कि
वो मरा नहीं है
मारा गया है
उसे मारा है
सभ्य समाजों की अंधी दौड़ ने
जहाँ वो घिसटता रहा
सबके पैरों के बीच/
अपनी बेतहाशा ख्वाहिशों के लिए
हमने तिल तिल कर
कुचला उसे
वो चीखता रहा /पुकारता रहा
बेबस,
आज उसके दुःख में
धधक रहा है ,
हमारी माँ का दिल
इस वेदना और क्रोध के काले धुएँ से,
ढक गये हैं नगर के नगर
मगर हम बाज़ नहीं आने के
अपनी खुदपरस्त आदतों से,
हम नोच नोच कर
खा जाएंगे ,
अपनी माँ को भी
एक रोज़
नस्लों की झूठी तरक्की के नाम पर
हम काटते जा रहे हैं
इसकी एक-एक नस
और चट कर रहे हैं इसे
गोश्त दर गोश्त
फिर इन खून सने हाथों को
लिये इकट्ठा होंगे
किसी सभा/रैली में
और उसी ख़ून से पोत लेंगे
अपने चेहरे
ताकि ढका रहे
अपना-अपना पिशाचपन
लेकिन एक दिन
हम सब भटकेंगे ज़ोमबिज़ की तरह
भटकना तय है
मरना भी तय है
क्योंकि ये भी तय है कि
हम सबकी माँ का वो धवल अंश ,
मरा नहीं है
मारा गया है।