तिरंगी चौराहा
तिरंगी चौराहा
वो खरीदते हैं तिरंगे को,
मजबूर चौराहों से।
खरीदे शौक से
उनके भाव है,
मैं मना नहीं करता।
चिल्लरों में बिकता,
तिरगीं कपड़ा
शायद पेट के लिये,
बिकता है, बिके शौक से
कोई भूखा है
मैं मना नहीं करता।
बचपन बिलखता है,
घुटन और भूख से।
लाचार माँ पोंछती है,
उसी तिरंगी कपड़े से।
कभी माथे पे उभरते
नमकीन मोती,
कभी टपकती लार।
भर भर के
छलकाती है,
नैनों से नीर।
छलकाये शौक से
वह ममता है।
मैं मना नहीं करता
लेकिन मजबूर क्यों है,
वह चौराहा ?
वो भी तो हिस्सा है
उसी तिरंगे का।
छोटा ही सही
हिस्सा तो है।
क्यों मजबूर है,
वो बचपन ?
जिसके नीर में
सन गया।
अभी से सूबे का चिह्न।
शायद कोई नहीं जानता,
न किसी को जानना ही है।
रहो सब
खुद में ही मशरुफ
भले कोई सामने
सबके मरता है।