बस भी करो
बस भी करो
प्रहार है ये मेरे स्पंदन पर तुम्हारे दो बोल,
प्रीत का अनूठा संसार उज़ड गया.!
उफ्फ़ बस अब कुछ ना कहो,
आगे तुम्हारा कुछ भी कहना जानलेवा होगा,
ये रिसता फ़िसलता रिश्ता अंतर्निहित होता महसूस होता है.!
क्या कोई ऑप्शन नहीं?
नियती की साजिश को कभी माफ़ीनामा नहीं दूँगी,
क्यूँ रिश्ते को अमरत्व का वरदान नहीं मिलता.!
घोर विडंबना की हलचल लिए दिमाग में
तुमसे दूर जा रही हूँ एसे जैसे दिन का दामन
छोड़कर शाम ढ़ल रही हो रात की गोद में,
आस की परियां गुनगुनाती है छोटे दिमाग की
सतह पर तुम्हारा नाम दोहराती ओर
दिल को पता ही नहीं जाना है दूर तुम्हारे साये से.!
कैसे एकदम से कुबूल हो ये मोह की दूरी
इत्तू-इत्तू सी भूलती जाऊँगी,
स्मृतियों की संदूक में नींव है
दबी प्रेम की चरम कैसे कम होगी.!
आहिस्ता-आहिस्ता कदम सीख रहे है
वापसी के ठिकाने मालूम नहीं,
चल पड़ी थी भूलने का सबक याद ही नहीं,
जैसे गिरती ओस को अंजाम का पता होता मालूम नहीं.!
एक एक रेशे से बुनकर प्रीत की चद्दर बुनी थी कैसे उधेड़ दूँ,
आस का एक धागा छोड़े जा रही हूँ
याद आए जो कभी मेरे प्रेम की उद्द्दादतम संवेदना
चले आना वापस मेरी दुनिया में.!
उठा लूँगी हौले से तुम्हारी प्रीत को,
ऊँगली पर उठाता है जैसे कोई तितली को,
प्रीत की कोई नई इबारत रचेंगे, अमरत्व दे जो रिश्ते को।।