"नवनीता" काव्य भाग -1
"नवनीता" काव्य भाग -1


प्रस्तावना : -
"न" निश्चल, "वी" वीराने में,
"अ" अंबर, "नि" निर्मल "ता" ।
मिला बैठ एक काव्य बुने,
स्वप्निल, निर्मल, "नवनीता"
अपना-अपना मान त्याग कर,
वो निर्मल छंद गाएँ।
आओ दोनों स्वार्थ रहित,
मिल 'नवनीता' बन जाएँ।।
प्रतिपल, प्रतिक्षण फिर से दोनों,
वही गीत दोहराएँ।
आओ दोनों स्वार्थ रहित,
मिल 'नवनीता' बन जाएँ ।।
समय की निर्मल धारा में हम,
काफी दूरी तैर लिए।
बचे शेष को क्यों ना हम-तुम,
उड़ने को पंख लगाएँ ।।
आओ दोनों स्वार्थ रहित,
मिल 'नवनीता' बन जाएँ ।।
हम दोन
ों के बीच बुने कुछ,
अनसुलझे धागों को।
आओ हिल-मिल बैठ प्रिय,
फिर वही गांठ सुलझाएँ ।।
आओ दोनों स्वार्थ रहित,
मिल 'नवनीता' बन जाएँ।।
आओ भुलें कि पाना है,
उस नवजीवन की प्रथम झलक।
वो नई उषा की बेला में,
संग-संग, झूमें और गाएँ।।
आओ दोनों स्वार्थ रहित,
मिल 'नवनीता' बन जाएँ ।।
वे ऋतुएँ जो भुला चुके हम,
अपने पथ पर हमराही।
आओ साथ हिलोरें खाएँ,
हर मौसम बारी-बारी ।।
उस उपवन में फिर से हम-तुम,
एक दुनिया नई बसाएँ,
आओ दोनों स्वार्थ रहित,
मिल नवनीता बन जाएँ ।।
क्रमश:..........