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एक पहल मेरे एहसास की

एक पहल मेरे एहसास की

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जब जुड़ जाते हैं

मन के धागे किसी से

तब कहाँ कुछ सुझता है,


प्यार एहसास है

कोई सोच समझकर की जाने वाली

साज़िश तो नहीं,


अब जिससे होता है

उसकी कुंडली तो नहीं जानते हम

बस प्यार ही तो है हो गया है,


अब क्या फ़र्क पड़ता है

वो इंसान शादीशुदा है

या कुँवारा।


हाँ कहलाती हूँ

मैं दूसरी औरत

तो क्या हुआ,


है अधिकार मुझे भी

किसी को प्यार करने का,

किसी का प्यार पाने का।


क्यूँ बनती है कोई

किसी की पहली औरत के रहते

दूसरी औरत ?


ना इसलिये नहीं कि

पहली औरत कमज़ोर है,

और ना ही दूसरी अधिक बोल्ड,


मर्द भी संतुष्ट होता है

अपने साँचे में ढ़ली पहली औरत से

पर बात यहाँ अहसास की है,


जो किसी के साथ जुड़ जाते हैं

तब कोई कहाँ सोचता है कि

किसके साथ जुड़ रहे हैं,


जरुरी नहीं की दूसरी औरत

छीनना ही जानती हो

देना भी स्वभाव हो सकता है।


किसी और को निराश्रित करके

खुद का घर बसाने के बजाय

सिर्फ प्यार भी तो पाना चाहती हो,


उसका भी आत्मसन्मान होता है

किसी को मजबूर करके

प्यार नहीं पाती,


बस चाहती है थोड़ा सा प्यार

और चाहत

और देती है खुद भी बदले में

दिल से भीतरी अहसास,


पहली औरत को तो मिलते हैं

हर एक हक और

ओहदा कानूनी तौर पर।

'

दूसरी को सिर्फ

केप्ट का लेबल'

नहीं चाहीये उसे कोई हक,

खुश है कुछ लम्हें अपनेपन के पाकर,


पहली सारे हक पाकर भी बेचारी

और लानत और नफ़रत ही

मिलती है दूसरी औरत को,


फिर भी वो नहीं जानती टूटना,

बिखरना,

गिड़गिड़ाना।


सम्मान को त्याग कर

बस एक किसी के प्रति जुड़े

अहसासों के साथ जीती है,


चाहे कुछ भी कह लो

पर जब कोई मर्द दूसरी औरत से जुड़ता है

तो समाज में बवंडर आ जाता है,


ऐसा भी तो होता है

कोई औरत भी शादीशुदा होकर

किसी और मर्द से अट्रेक्ट हो सकती है

उस दूसरे मर्द को क्या कहोगे,


लांछन तो औरत को ही लगेगा

मर्द छूट जाता है

क्यूँकि वो मर्द है,

उसे कुछ भी करने का पूरा हक है,


अरे औरत भी इंसान है

उसे भी अपनी ज़िन्दगी

अपने तौर तरीके से

जीने का पूरा हक है,


सामाजिक व्यवस्था के परे भी

इंसान की भावनाएँ होती है,

तो मंज़ूर है मुझे दूसरी औरत कहलाना,


पहली औरत को

अपने सारे हक मुबारक,

शायद सामाजिक तौर पर मैं

गलत हो सकती हूँ,


जानती हूँ सब मुझे ही

गलत ठहरायेंगे।

पर मैं बस जीना चाहती हूँ,


कुछ हसीन लम्हें

जो मुझे मिलते हैं

किसी पहली औरत के हिस्से से,


छीन नहीं रही,

कोई खुद अपने अहसास

बाँट रहा है मुझसे,


अपनी मर्ज़ी से तो

दो समझदार लोगों को

अपने अहसास बाँटने से

कोई नहीं रोक सकता।


पहली औरत मुझसे जले नहीं

आफ्टर ऑल यू फर्स्ट

हाँ, हूँ मैं दूसरी औरत,


वो कहते हैं ना

मैं तुलसी तेरे आँगन की

कुछ-कुछ यूँ ही।।


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