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मरहमी शाम

मरहमी शाम

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संगमरमर सी मरहमी शाम गोधुली

रंग से रंगी 

ठहर गई है उस लम्हें को तलाशती 

खोया था जो तुम्हारा, 

आता हूँ अभी


कहकर जाने के रास्तों पर

अफ़सोस के बोसे से लिपटा वो लम्हा

मेरी उम्मीद पर रोता है

कहाँ लौटकर आते है जाने वाले 

बार-बार कानों में यही कहता है!


फिराक में रहती है शाम मेरे हाथों से

फिसलकर जाने की!


मैं मुट्ठियों में रेत की मानिंद जकड़ती हूँ 

अश्कों की बौछार से गीला करते 

सूखी रेत सरक जाती है

गीली सोई रहेगी मेरी हथेलियों से लिपटे.!


मेरी तलाश की नाकाम कोशिश से टिस

उठती फैल जाती है हसीन शाम को

रुलाती 

शाम के दामन पर ये हल्के गहरे धब्बे 

सिलन है मेरी आँखों से बहती मुसलसल

बारिश की..!


रोक कर रखा है इस शाम को अंजाम

कोई दे जाओ,

सितारें सूख रहे है इंतज़ार में शाम

ढले तो रात चले।।



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