औरत ही औरत की दुश्मन है
औरत ही औरत की दुश्मन है
बचपन मे
कभी बहन बनकर
कभी दोस्त बनकर
लड़ती झगड़ती
कभी ईर्ष्या करती
बाहर से इतनी अपनी
बनती की इनसे सगा
कोई नही
सच बात तो
वक्त आने पर
पता चलता
इनसे अच्छे तो दुशमन
कुछ बड़े होते तो
सहेली की माँ
सहेली की सहेली
बहन की सहेली
दुश्मनों का दायरा
बढ़ता जाता है
और कहने को
यही रह जाता है
की इससे अच्छे
तो दुश्मन होते है
ससुराल गई तो
सास ननद
देवरानी जिठानी
दादी सास
नानी सास
बुआ सास
मामी सास
मौसी सास
बड़ी सास
ये सब भी
औरतें है
पर औरत का दर्द
कभी नही समझती
दर्द देना जानती है
बात बात पर
बताती है
हमने भी सहा है
तुम भी सहो
ये नही सोचती की
वक्त बदल गया है
तो चीज़े भी बदलनी
चाहिये
और अपनी बेटी के लिए
हर सुख चाहिए
तो कैसी बनेगी
एक औरत औरत की
दोस्त हुई न दुशमन