वो दिन भी क्या दिन थे
वो दिन भी क्या दिन थे
वो दिन भी क्या दिन थे,
खेलने की मस्ती थी,
कागज़ की कश्ती थी,
ना जाने वो नादान बचपन भी क्यों इतनी अच्छी थी।
जहां चाहा वहां रो लेते थे,
जहां चाहा वहां हंस लेते थे,
कभी पेंसिल गुम हो जाती थी,
तो कभी किसी की रबड़ चुरा लेते थे।
वो दिन भी क्या दिन थे,
झूठ बोला करते थे,
फिर भी मन के सच्चे थे,
ये तो उन दिनों की बातें है जब हम बच्चे थे।
न कुछ पाने की आशा थी,
न कुछ खोने का डर,
न कुछ ज़रूरी था,
ना किसी की ज़रूरत थी,
बस अपने सपनों का घर था,
और मां की मार का डर था।
वो दिन भी क्या दिन थे,
जब खुशियों का खजाना था,
चांद तारों की चाहत थी,
दादी मां की कहानी थी,
परियों का अपना फसाना था,
हर मौसम सुहाना था,
बारिश के पानी में खुद का एक जहाज़ था,
न शाम-सुबह का ठिकाना था,
न स्कूल जाने का मन था,
रोने की कोई वजह नहीं थी,
न हंसने का कोई बहाना था,
क्यों हो गए हम इतने बड़े,
इससे अच्छा तो हमारा बचपन का ज़माना था।
वो दिन भी क्या दिन थे।
वो दिन भी क्या दिन थे।