आईना
आईना
आज एक शख़्स मिला मुझे,
कुछ उदास-सा था,
पीर थी कोई उसे,
दर्द कोई खास सा था।
बोझ रिश्तों का,
जिम्मेदारियों की पीठ पर लिए,
हँसी होंठों पे थी,
अंदर से वो हताश-सा था।
जैसे वो आज,
माफी माँगने ही आया हो,
जैसे उसे अपनी,
गलतियों का एहसास-सा था।
था कई बार दुखाया,
मैंने दिल उसका,
जब किसी और को,
खुश करने का प्रयास-सा था।
बड़ी देर हो गयी थी,
जब समझ आया,
असली चेहरों पे एक,
झूठा लिबास-सा था।
आज सोचा के चलो,
उससे भी हम मिल ही लें,
अंदर ही अंदर ज़िंदा,
जो एक लाश-सा था।
समान दूरियों पे हम थे,
खड़े उस बेजान जान से,
मैं जितनी दूर आईने से,
वो उतने पास-सा था।