बढ़ रहे हैं कदम
बढ़ रहे हैं कदम
ये वक़्त की बेवफाई है,
या मेरे मन का भ्रम,
कि जल चुकी है चेतना,
फिर भी कुछ लगता है कम !
ये खुद की मेहरबानी है,
या क़िस्मत का करम,
कि नहीं है कोई मंजिल,
फिर भी बढ़ रहे हैं कदम !
बस सवालों के घेरे में जिए,
यहाँ उत्तर की गुंजाइश नहीं,
बंद नजरों से मुस्कुराता है,
पर पत्थर में उठती ख्वाइश नहीं !
खुला है वो दर कब से,
कि हम भी करते कोई फरमाइश नहीं,
ये खुद की जिन्दादिली है,
या समाज का धरम !
कि नहीं है कोई साथी,
बस एक गम ही है हमदम,
ये मौसम की रुखाई है,
या आँखों का शर्म !
कि नहीं है कोई साथी,
फिर भी बढ़ रहे है कदम !