औरतें
औरतें
ना जाने किस मिट्टी की बनी होती है ये औरतें,
सुबह से सांँझ तक करती है काम कई
जब थक जाए तब भी ना करे आराम कहीं,
एक कप अदरक की चाय पीने की खातिर,
बनाती है पूरे घर की चाय यही,
आखिर इतना सबके बारे में
क्यों सोचती है ये औरतें ?
सबकी पसंद की पकवान रसोईघर में बनाए,
सबको पास बैठा कर खिलाए
लेकिन खुद की पसंद का कभी कुछ ना बनाए,
परिवार के लिए अपनी पसंद भूल जाती है ये औरतें।
कभी बांँझ कही जाए, कभी बेचारी,
कभी कम दहेज के लिए सुने,
कभी बेटी पैदा करने के लिए,
सब कुछ सुनकर फिर क्यों सब
भूल जाती है ये औरतें ?
जब प्यार से हो पोषित तो
लताओं जैसी गिरते उठते आगे बढ़े ये,
लेकिन जब हो जाये उपेक्षित तो
अपने अस्तित्व के लिए बरगद सी अडिग रहती है ये औरतें,
ना जाने किस मिट्टी की बनी होती है ये औरतें।।