औरत के बस की बात नहीं हैं।
औरत के बस की बात नहीं हैं।


उन सभी महापुरुषों के लिये जो कहते हैं,
की औरत के बस की बात नहीं हैं।
अनुचित हैं यह बात जिसने भी कहीं हैं।
निराधार हैं वह पुरुष यदि संग नारी नहीं हैं।
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नारियाँ तो कई रंगों से भरी है,
सदा अन्यों से हुई स्वयं बेरंगी हैं।
तूने विभूषित किया होगा केवल
उसी ने हाथों से तेरी दुनिया रंगी है
हैं प्यार से दामन भरा, वह,
दुख को स्मित से सह जाती हैं।
जीवन मैं सुख हों की हों दुःख,
वह तेरे निकट ही रहें जाती हैं।
जहां तू थक कर हारा है वही,
उसकी कलाई साहस देती हैं।
उसके हृदय की हर उपासना,
तूम पे ही आके पूर्ण होती हैं।
अन्यों के लिये जीये जाती हैं,
बीन स्वार्थ सदैव ही समर्थन हैं।
नारीयां ईश संसार का दर्पण हैं,
हर काज मैं वह सदैव समर्पण हैं।
मां की लोरी हीन नींद अधूरी हैं,
बहिन बीन कलाई तेरी सुनी हैं।
बन तेरी अर्द्धांगिनी वह उपकारी हैं,
पुत्री पदचिह्नों संग लक्ष्मी पधारी हैं।
परिजनों की सुरक्षा के हेतु,
वो ईश्वर से भी लड़ जाती हैं।
बनकर वह प्रांजल सावित्री,
साथी को यम से छीन लाती हैं।
केवल सम्मान की अधिकारी है,
हर पुरुष पर रहीं सदा उपकारी है।
बन मां, बहिन, अर्द्धांगिनी सदैव ,
महान वेत्ति की रहीं सलाहकारी हैं।
यदि हृदय से करेंगी स्नेह, तो
धैर्य राधिका सा वह धरती हैं।
की यदि उसे मजबूरन पुनः, वह
मणिकर्णिका सी प्राणघाती हैं।
उठी यदि उंगली चरित्र पर, तब
अपशब्द को शब्दों से वार देगी
स्थिरता का हुआ यदि अंत, वह
उपहार मैं महाभारत हार देगी ॥
समाया जानकी सा मन तंप हैं,
द्रौपदी सी वह धधकती अग्नि है
हृदय में कुंती सी सहनशीलता हैं,
मीरा सा साहस भक्ति की शक्ति हैं।
चंडीका सी भरती युद्ध हुंकारे हैं,
महाकाली सी वह प्रलयकारी हैं।
धातु सी तोल पुष्प सी कोमल हैं,
वह तो भागीरथी से भी कुंवारी हैं।
डगमगाने लगा स्वर्ग सिंहासन,
गगन मैं दानवों दी किलकारी हैं।
ईश्वर भी हुआ जब विस्मय, पश्चात
देवियां बनी देवों की उपकारी हैं।
भविष्य की डोर हाथों में थामी है,
संसार अग्रसर उत्तरदायित्व मानी हैं।
दिव्य आत्म दर्शन अपेक्षित नारी हैं,
प्रभु आगमन की आस भी पाली हैं।
युद्धभूमि मैं भी मनः स्थिति स्थिर हैं,
लड़ाती वह तलवारों संग भाला हैं।
स्पर्श करे कुदृष्टि, स्वाभिमान के हेतु,
वह स्वयं जलाती जौहर ज्वाला हैं।
यह स्त्रियां संसार के अधीन नहीं हैं,
संसार प्रत्येक नारी के अधीन हैं।
राम कृष्ण भी निर्माण के विवश हैं,
लिखित विधिता प्रत्येक के लेखन हैं।
यह संसार को लज्जा कब आयेगी,
यह स्त्री भ्रूण हत्या कब ठहर पाएगी।
कहते है लोग भूकंप सुनामी आती है,
जो हमने बोया धरा वहीं उपजाति हैं।
नारी समझें नर मैं वह मेघा नहीं है,
परमात्मा का निरन्तर प्रयत्न जारी हैं।
केवल दंडवत प्रणाम मार्ग उचित हैं,
"भरत" वस्तुतः का प्रयास भी व्यर्थ हैं।
क्यूं नारी के बस की बात नहीं हैं,
क्यूं औरत के बस की बात नहीं हैं ॥