ज़ौक़-ए-सफर
ज़ौक़-ए-सफर
मैं हूँ और ये मेरा ज़ौक़-ए-सफर है,
अब कहाँ अंदाज़ा-ए-शाम-ओ-सहर है.
हैं दीग़र अब कहाँ ये हाईल-ए-राह,
अपनी तो फ़क़त अब मज़िल पे नज़र है.
आसाँ नहीं परवरिश, इस इल्म-ओ-फ़न की,
मांगे ख़ून-ए-जिग़र, ये जो इश्क़ का शजर है.
कहाँ मिलती है हर एक को कामिल मुहब्बत,
हर क़तरा-ए-दरया की कहाँ तक़दीर गुहर है.
इस क़दर बदनाम है तू ऐ "शौक़" जहाँ में,
तेरे कूचा-ओ-बज़्म से हर नेक को हजर है.
करता हूँ मैं दवा जहाँ में अन्दोहे-इश्क़ की,
आस्तीं में दशना पिन्हाँ, हाथों में नश्तर है.
कुछ आशुफ़्ता-हाल, बेनवा मैं जीता हूँ,
ग़ाफ़िल-ए-दहर, पर मुझे सब ख़बर है.
एक मुद्दत से हूँ सर्फ़-ए-इबादत जिसकी खातिर,
किधर है ऐ यार, वो तेरा कूचा किधर है.
मिट जायेंगे ज़िन्दगी तेरी ख़्वाहिश के सदक़े,
तुझे मेरी जाँ, मेरी जान से शिकायत ग़र है.
क्या हो हमें मयस्सर, ढूंढ लाएँ कहाँ से,
इसकी नहीं दवा, ये जो दर्द-ए-जिग़र है.
राहज़न था जो, मेरा कारवाँ लूटा था जिसने,
हाय तीराह-बख़्त, कि वही अब हमसफ़र है.
डूबने को चाहे है यक़ गोशा दीद-ए-हज़ीं,
मालूम नहीं कि ये सहरा है या समंदर है...!