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Mohanjeet Kukreja

Abstract

4.5  

Mohanjeet Kukreja

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बूढ़ी किताब

बूढ़ी किताब

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359


शिव कुमार बटालवी

हिंदी अनुवाद: मोहनजीत


मैं, मेरे दोस्त...

तुम्हारी किताब पढ़ कर,

कई दिन हो गए हैं

सो नहीं सका !


मेरे लिए यह किताब बूढ़ी है

इसके शब्दों के हाथ कांपते हैं

इसकी हर पंक्ति सठियाई हुई है;

यह जल के बुझ चुके

अर्थों की आग है,

यह मेरे लिए शमशानी राख है !


मैं बूढ़े हांफते

इसके शब्द जब भी पढ़ता हूँ,

और झुर्रियाए

वाक्यों पर नज़र धरता हूँ,

तो घर में देख कर

इस शमशानी राख से डरता हूँ;

और इसके बुझ चुके

अर्थों की आग में जलता हूँ।


जब मेरे घर में यह

बूढ़ी किताब खांसती है,

हांफती और ऊँघती

अर्थों का घूंट मांगती है,   

तो मेरी नींद के

माथे पर रात कांपती है !


मुझे डर है

यह बूढ़ी किताब

मेरे ही घर में

कहीं मर ना जाए

और मेरी दोस्ती पर हर्फ़ आए।


इसलिए मेरे दोस्त,

मैं यह बूढ़ी किताब लौटा रहा हूँ -

अगर ज़िंदा मिल गई

तो एक ख़त लिख देना,

और अगर रास्ते में मर गई

तो ख़त भी ज़रूरी नहीं;

तुम्हारे शहर में भी

क़ब्रों की कोई कमी नहीं !


मैं, मेरे दोस्त...

तुम्हारी किताब पढ़ कर

कई दिन हो गए हैं

सो नहीं सका !!


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