मेरी खुशियों का कातिल !
मेरी खुशियों का कातिल !
कभी ख्वाबों की ताबीर का सच ढूंढता हूं तो
कभी ना- मुकम्मल होने वाले ख्वाबों के खौफ से खुद को सोने नहीं देता ।
मेरी मुश्किलें मेरे सिरहाने इस तरह रहती हैं कि मैं चाहकर भी
ज़ख्मों से खुद को जुदा करने नहीं देता ।
जाने अनजाने हुईं जो खताएं मुझसे अबतक मेरे दामन से लिपटीं क्यों है?
क्यों इतने गिरयां पर भी मेरी ज़ात मेरे बीते गुनाहों का अज़ाला करने नहीं देती ।
ला हासिल की तमन्ना किए जाना
ना जाने कितनी दफा खुद को बीते लम्हों की ओर ले जाना
सोचता हूं मैं खुद अपनी खुशियों का कातिल तो नहीं।