वादळं
वादळं
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पाय विचारांचे उठले ना
सुई शंकानं घेऊन फिरला
भुई मनातून घोंघावतं
आनंदाच्या दारीं मुकला ना
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फिरला ना गावभर हिंदडत
केस करून डोक्याचें चित्ररं
उडवत क्षणाचे रूप काही
मंचवत मनात कल्लोळ कुणा
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उखडत मन उखडत जातं
नं राहून विरान उडतं असतं
खटकतं हवा असें पर्यंत
बिघडवत रूप नुकसानीच
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वादळं असं वादळं तसं
कधी जीवनात कधी सृष्टीत
नेमक शांत होतं गरजेतं
ताणलं जातं काहींकाही
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पावतं ना समाधान ठेवून
समजून पूर्ववत करता येतं
पण जिणं थोडं वेळ खातं
प्रेम विश्वास व्यहार बसायला
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