आई...अभंग!
आई...अभंग!
आई...अभंग...!
(६६६४)
आई तुझ्यावरी।अभंग लिहिता।
तुझी महासता।चराचरी।
मी ग तुझा खरा।सेवेकरी जाण।
नाही काही वाण।जीवनात।।
मधाचे ते बोट।अजूनही ओठी।
आली जरी साठी। आठवते।।
पहिला मुखात।थेंब हा दुधाचा।
अवीट गोडीचा। पाजलास।।
माया ममता ती।सारी पदरात।
सारली पोटात।मायेपोटी।।
घास हा काऊचा।घास हा चिऊचा।
उरला मोत्याचा। तोही मुखी।।
माय तू माऊली। किती गोड माया।
किती गोड छाया।दावलीस।।
सक्षम करण्या।शिक्षण देऊन।
साक्षर करून । सोडलेस।।
सदृढ शरीर। तुझ्या आशिर्वादे।
नव्हते कायदे ।त्याच काळी।।
आता आठवण।सारखीच येते।
मन ओढ घेते।मायेसाठी।।
पण मी ग पापी। तुझ्याविन राही।
सारे सारे साही। नसताना।।
होतीस तू पाठी।नव्हती ही काठी।
उलतली साठी।तरीसुद्धा।।
जाता परलोकी।सारे अधांतरी।
नाही ग जंतरी।जीवनाची।
सूर लागो जिवा। हा शांततामय।
सांग ना उपाय।जगण्यास।।