" यही है प्यार"
" यही है प्यार"
सेवानिवृत्ति के बाद हम दोनों काफी बोरियत सी महसूस करने लगे थे। साल भर तक खूब आराम फरमाया, बागवानी की आदत डाली, फिल्में देखीं, टी। वी, रेडियो सबसे जुड़े रिश्तेदारों के घर भी घूम फिर आए और उनके उलाहनों एवं शिकायतों से काफी हद तक निजात भी पा ली।
जब भी कभी हम अपनों के बीच अपनी मन की बात कहते तो
सरकारी पेंशन की चर्चा करके सभी मजाक करते-अरे भाईसाहब। भाभी जी। बंगला है, गाड़ी है, बंधी बंधाई पेंशन है। अब उमर साठ के ठाठ लो बस।
नौकरी काहे को करनी है जी!चौंतीस साल मेहनत की है आपने। कम बड़ी बात नहीं जी।
यही सब सोचकर हम विदेशों में टूर-पैकेज लेने लगे। दिन हवा से उड़ रहे थे। इस बीच प्रवासी बड़े बेटे, बहू और नन्हे सुपौत्र से भी मिलने गए।
बेफिक्री भी थी, क्योंकि छोटी बहू और बेटा घर पर ही थे।
-पापा जी!पापा जी!आपका अपाएमेंट लैटर है। सरकारी जाॅब का।
मजा आ गया जी। अब फिरसे कहूँगी सबसे मेरे फादर इन लाॅ बड़े अफसर हैं।
उछलती हुई छुटकी बहू निम्मी तालियां पीट रही थी।
जाने क्यों मेरी रूलाई फूट रही थी। मैं संभली और अपना भी वाक्य जोड़ा-हुंअंअ। चलो अब मैं भी घर संभालूंगी ठीक से। आदमी घर में हों, तो काम भी नहीं होता है जी। अब जल्दी उठकर लंच लगाना होगा बस। काम तो बढ़ गया।
-तो मैंने पहले भी कहाँ रोका था तुम्हे भाग्यवान!
ये मुस्कुराकर बोले।
-ओह!टी। वी में तो बस वही झगड़े, बहस, बे सिर पैर के सीरियल।
बगीचे में किस पौधे में कम पानी देना है किसमें ज्यादा ? निराई गुड़ाई करना, पाखियों के लिये छत की मुंडेर पर अन्न जल रखना, भोर होते ही गेट का ताला खोलना, पानी की मोटर चलाना, बिल जमा करना, जाले झाड़ना और भी छिटपुट काम पूरे करना, जिनकी जिम्मेदारी पूरी तरह से पतिदेव ने अपने कंधों पर बखूबी ले ली थी। अब भार सी महसूस हो रही है।
मैं सचमुच ही रो रही थी। गालों पर लुढ़कते दो एक आंसू अभी सूखे नहीं थे, कि चंचल, मस्त और प्यारी सी बहुरिया निम्मी लहराकर हमारे बैडरूम में आई , लाईट ऑन की और होठों को गोल करके मेरे चेहरे पर आंखें गड़ाकर बोली- माॅम !आप रो रहे हो ?हा हा। हा हा।
पापा की याद आ रही है ना ? ही ही। ही ही।
-अब किससे करूं झगड़ा ?किसे लगाऊं डांट ?कौन आपके आगे पीछे घूमे ?
यही सोच रही हो ना। मम्मा। आ। आ। आ।।
और फिर फिस्स से चुलबुलाती हंसी उसके चेहरे पर चिपक गई थी।
-जा भाग यहाँ से। सासु माँ से ऐसे मजाक करते हैं क्या बेटू ?
मैंने मिथ्या क्रोध दिखाते हुए कहा।
-जी!आप मेरी माॅम हैं। सासू नहीं हो। कहते हुए उसने मेरे गाल पर पप्पी जड़ी और अपने कमरे की ओर चली गई।
घर की रौनक बनी मेरी बहू के ऐसे निष्कपट स्नेह से सराबोर मैं उठी और काम में लग गई।
-खुद को अब मैंने व्यस्त कर लिया था। मुहल्ले की निरक्षर बुजुर्ग महिलाओं को पढ़ाने में।
चहल पहल से भरी शाम यूं ही बीत जाती और फिर प्रतीक्षा के पल भी छोटे होने लगे।
दोबारा दूर होने पर रार तकरार से भरे प्यार भरे बीते हुए पल ज्यादा याद आते और मेरे कानों में हौले हौले कह जाते- हां ! यही प्यार है।