इत्तफाक
इत्तफाक
आज फिर ऑफिस से लौटते हुए देर हो गयी। धीमी-धीमी फुहारें भी पड़ने लगीं थीं, खुद को कोसने लगी कि सारी ज़रूरी चीज़ों में मैं छाता क्यों भूल जाती हूं? फुहारें तेज़ होने लग पड़ीं थीं। रात और बारिश, दोनों ने लोगों को घर के अंदर बंद कर दिया था। छोटे शहर होने की वजह से इक्का दुक्का वाहन ही दिख रहे थे। तभी मैंने निर्णय लिया, रास्ते में जो घर दिख रहा है, उसके बरामदे में थोड़ी देर ठहरकर बारिश बंद होने का इंतज़ार कर लूं! वैसे भी बरामदे में ठहरने के लिए कोई मना भी नहीं करेगा।
मैं बरामदे में खड़ी ही थी कि पुराना घर होने की वजह से उसकी छत से पानी टपकने लगा, मैं थोड़ा आगे सरककर दरवाज़े की टेक लेकर खड़ी हो गयी। अचानक से दरवाज़ा खुला और किसी ने मुझे अंदर खींच लिया।
वह एक भद्र महिला थीं।उन्होंने मुझे अपने बेटे के सिरहाने रखी कुर्सी पर बैठाया और बोलीं-
"बेटी! मेरा बेटा बुखार से तप रहा है ,कुछ मदद कर सकती हो बेटी?"
"अरे बादल! मुझे पहचाना?मैं बरखा,तुम्हारी क्लासमेट।तुम तो आर्मी में थे न?"
मैं सुखद आश्चर्य से अभिभूत होकर बोली।
"हां ! छोड़ना पड़ा।कोरोना ने यहाँ पापा और दीदी को हमसे छीन लिया।मां बिल्कुल रह गईं थीं.".
"अब कोई अकेला नहीं रहेगा ।मैं जो आ गई हूं!"
पर्स से पैरासिटामोल की गोली और पानी की बोतल बादल को पकड़ाते हुए मैंने कहा।
बादल की अम्मी ने ममत्व भरी निगाहों से मेरी ओर देखते हुए अपनी बांहों में समेटकर मुझे बहू के रूप में स्वीकार कर लिया।
आज अजब इत्तफाक ही था,कि सुहावने मौसम में बादल और बरखा बरसों बाद फिर मिलकर नेह के रंग में सराबोर हो गए थे।