दो बूँद
दो बूँद
नीरू रोज ही मां के साथ काम पर जाती, लेकिन मां रास्ते भर उससे कहती रहती- “बेटा! तूने देखा ना कैसे ले गए थे हीरा की मां को पकड़कर पुलिस वाले बेदर्दी से...”
“मां! वो तो दस साल के छोरे को सब्जी बेचने भेजे थी अर छोरी भी साथ जाके बर्तन साफ करावे ही... मैं तो बारवीं में हूं... पूरे सतरै साल की...”
“लोग कहैंगे जवान बेटी को घर सू बाहर घुमाती फिरे है...”
“अरी मां! गरीब की मदद कोई ना करता, लोगों का का है कछु न कछु बोलेंगे ही, मेमसाब पढ़ा देवे हैं मैं उनकी मदद करा दूं...”
“वे भी आफिस की नौकरी करके शाम को थकके आवे हैं... चल ठीक ही है... सेवा करना तो बालकों का धरम होवे है...”
बंगले पर पहुंचते ही मालकिन की कार रूकी।
“चल खा काजू बरफी! तुझे स्काॅलरशिप मिली है नीरू... छियानवे प्रतिशत अंक मिले हैं बारहवीं बोर्ड में... शाब्बाश...
अब तो बस मेरी ही निगरानी में रहेगी तू... तुझे प्रशासनिक अधिकारी बनाना मेरे जीवन का लक्ष्य रहेगा...”
नीरू के कानों में वंदना जी के मीठे स्वर गूंज उठे... नीरू की मां मेमसाब को एकटक देखे जा रही थी... उसकी आंखों से दो बूंद आंसू टपक पड़े... एक गम का... एक खुशी का...