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Archana Saxena

Abstract

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Archana Saxena

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ये कैसा आत्मसम्मान

ये कैसा आत्मसम्मान

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माँ से किए गए वादे से बँधा हुआ कमल पैदल ही रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़ा था। सामान के नाम पर कंधो पर झूलता मंझोला सा एक बैग ही तो था। बाकी सब कुछ तो करुणा की यादों की तरह ही पीछे छोड़ आया था।

आज फिर जातपाँत के आगे इश्क हार गया था। स्वयं ही अपने अधूरे इश्क की चिता जला कर आ गया था। माना कि सारी निशानियाँ आग के हवाले कर दीं थीं... पर...... तो क्या वह राख हो गईं ?

नहीं,दिल में तो अब भी आग सुलग रही थी जो उसे स्वयं जला रही थी। पर किसी को कुछ नहीं पड़ी थी। जन्म देने वाली माँ को भी नहीं।

उसे याद आया जब पहली नौकरी के लिए वह गाँव से शहर की ओर रवाना हुआ था। आँखों में आँसू लिए माँ उससे बोली थीं

"बेटा रामदीन का लड़का शहर जाकर बिगड़ गया था। विजातीय को ब्याह लाया। नाक कटा दी रामदीन की.... कहीं तू भी तो ऐसा कुछ नहीं कर लेगा?"

"चिंता मत करो माँ, किसी को पसंद किया भी तो विवाह तो तुम्हारे आशीर्वाद से ही करूँगा"

"पर मेरा आशीर्वाद तो तभी मिलेगा जब लड़की मैं चुनूँगी।"

"समय आने दो माँ अभी से क्या सोचना"

कमल हँस कर बोला।

"पहले खा मेरी कसम कि मेरे सम्मान पर आँच नहीं आने देगा"

अपनी माँके सम्मान पर कोई भी भला लड़का आँच आने दे सकता है क्या ?"

कमल गम्भीर होता हुआ बोला। तब तो बात वहीं समाप्त हो गई थी।

 शहर में दफ्तर में साथ काम करने वाली करुणा कब इतना भाने लगी पता ही नहीं चला।

जब माँ ने मुखिया जी की बेटी के रिश्ते का जिक्र किया तो कमल विरोध पर उतर आया।

माँ भी कहाँ कुछ कम थी।

"तूने कसम खाई थी, वादा किया था मुझसे। और फिर मुखिया जी से दुश्मनी मोल लेंगे क्या? और फिर दहेज इतना दे रहे हैं कि अगली पीढ़ी भी बैठ कर खा ले।"

माँ साम दाम सब अपना रही थीं।

"देख कमल अगर मेरे आत्मसम्मान पर आँच आई तो मेरा मरा मुँह देखेगा तू"

"ये कैसा झूठा आत्मसम्मान है जहाँ सही की परिभाषा ही गलत है, जो पुत्र प्रेम के आगे भी बड़ा है? इसे आत्मसम्मान कहना कहाँ उचित है? ये तो अहम् है, स्वार्थ है यह तो।"

कमल ने तड़प कर कहा।

 "तू जिसे मेरा स्वार्थ कह रहा है उसी में ही तेरी और हम सबकी भलाई है बेटा। हाँ तो मैंने कह दी है फिर भी तू एक बार आकर लड़की देख जा।"

"जब हाँ कर ही दी है तो यह ढोंग भी क्यों करना? मैं नहीं आ रहा लड़की देखने।"

कमल क्रोध सेबोला।

"ठीक है तो मैं तारीख निकलवाने को कह देती हूँ मुखिया जी से।"

माँ तो जैसे ठान कर बैठी थी और कमल आत्महत्या की धमकी के आगे विवश हो गया था।

और शीघ्र ही विवाह की तारीख भी आ गई।

संवेदनशील, कोमल हृदया करुणा ने टूटे दिल और बहते आँसुओं के बीच उसे मुक्त कर दिया था।

गाँव पहुँच कर कमल इतना चुप था जैसे अपने विवाह में नहीं किसी मातम में आया हो। पर माँ की प्रसन्नता की सीमा नहीं थी। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि सब ठीक हो जाएगा।

गोदभराई की रस्म में कमल और उसकी होने वाली पत्नी रंजना ने एकदूसरे की ओर देखा तक नहीं।

रंजना भी उदास थी। शायद रिश्ता उसकी भी मर्जी से नहीं हुआ था।

विवाह से एक दिन पूर्व खबर आई कि रंजना ने नींद की गोलियां खा ली थीं और अस्पताल में जिंदगी और मौत से संघर्ष कर रही थी।

कमल तुरंत माँ के साथ अस्पताल दौड़ा। 

मुखिया जी की पत्नी रो रोकर मुखिया जी से कह रही थीं

"कहा था आपसे कि रंजना की मर्जी के खिलाफ विवाह मत करो उसका। अगर उसे कुछ हो गया तो मैं आपको कभी माफ नहीं करूंगी।"

कमल की माँ स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रही थी।

कुछ दूर पर एक युवक आँसू बहाता खड़ा था। उसने कमल को हिकारत से देखा। कमल को माज़रा समझते देर नहीं लगी।

उसके पास पहुँच कर बोला।

"रंजना से प्यार करते हो? निराश मत हो। तुम्हारा इश्क अधूरा नहीं रहेगा। कुछ नहीं होगा उसे।"

इतने में कमल की माँ ने कमल के कन्धे पर हाथ रख कर कहा

"और तुम्हारा इश्क भी अधूरा नहीं रहेगा। मुझे माफ कर दो बेटा। जानते बूझते गुनाह करने चली थी। चार जिंदगियां बरबाद होने से बच गई हैं।"

तभी डॉक्टर ने रंजना के खतरे से बाहर होने की सूचना दी तो प्रसन्नता की लहर दौड़ गई।

माँ खुशी के आँसू पोंछते हुए बोली

 "मेरी बहू करुणा को फोन लगाओ।"


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