Archana Saxena

Abstract

4.5  

Archana Saxena

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सपना सच हुआ

सपना सच हुआ

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बचपन से ही हर समय अपनी ही सोच में डूबी रहने वाली रचना बाकी बच्चों से कुछ भिन्न थी। उसे अन्य बच्चों के साथ खेलना पसन्द तो था परन्तु हर खेल में बढ़चढ़ कर हिस्सा वह स्वयं नहीं लेती थी। उसे जो जैसा बताता वह वैसा ही कर लेती। इसके विपरीत कहानियाँ पढ़ने और गढ़ने का उसे बेहद शौक था। कल्पनाओं की उड़ान इतनी तीव्र की हवा का झोंका भी उसकी बराबरी नहीं कर सकता था। अपने काल्पनिक पात्रों के साथ वह दुनिया भर की सैर कर आती थी। कभी परीलोक में घूमती तो कभी चंदामामा की सूत कातने वाली बुढ़िया का चरखा चलाती।

उसकी इस विलक्षण प्रतिभा को किसी ने कभी नहीं पहचाना और न ही प्रोत्साहित किया। कोई करता भी कैसे, कल्पनाएँ तो मन में ही थीं न, कभी बाहर निकली ही नहीं थीं।

कुछ और बड़ी हुई तो परियों की कहानियों का स्वरूप भी बदला। अब उसकी कहानियों में वह स्वयं राजकुमारी होती थी जिसे अपने साथ ले जाने कोई सुन्दर सा राजकुमार हवा के घोड़े पर सवार होकर आता और वह सिर से पाँव तक प्रेम में सराबोर हो जाती।

इसी के साथ एक और बात हुई कि भाव अब शब्द बन कर कागज पर उतरने लगे थे। बड़ी होती रचना कुछ मुखर भी हो गई थी, जब तब अपनी लिखी कहानियाँ अपनी सखी सहेलियों को पढ़वाती। उसकी कल्पनाशीलता को देख कर सभी दाँतो तले उँगली दबाने को मजबूर हो जाते। इस प्रशंसा ने आत्मविश्वास में बढ़ोत्तरी की और एक दिन बढ़ी हिम्मत जुटाकर एक पत्रिका में एक कहानी भेज दी। रचना ने तो सुंदर रचना ही रची थी परंतु संपादक के मानकों पर वह रचना शायद खरी नहीं उतरी और खेदसहित वापस आ गई। अब तक जो प्रशंसा में कसीदे पढ़ते थे वही अब उपहास करने लगे थे। दिल टूट गया बेचारी का और साथ ही सपना भी। रचनाएँ तो और भी लिखीं परंतु दोबारा भेजने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाई। धीरे धीरे और बड़ी हुई तो विवाह बंधन में बँधकर ससुराल चली गई। जिम्मेदारियों के बोझ तले लेखिका बनने का वह सपना कुम्हला गया। किसी दिन दम तोड़ ही देता कि एकदिन रचना के सपने में आँखों में आँसू भर कर वह सपना आया। रचना से उसकी दुर्दशा देखी नहीं गई और वह चौंक कर उठ बैठी। स्वयं को धिक्कार रही थी, अपने ही सपनों के साथ इतना अन्याय कैसे कर सकी वह? बस बहुत हुआ, अब और नहीं। अब वह अपनी कलम में फिर से प्राण फूँकेगी। नए सिरे से लेखन का सफर प्रारंभ करेगी। जब संकल्प दृढ़ हो तो मंजिल स्वयं रास्ता देती है। कलम चल निकली और शीघ्र ही आकाश की बुलंदियों को छूने लगी। आज उसके द्वारा लिखे गए एक सामाजिक उपन्यास को अवार्ड मिला था। विशेष रूप से सम्मानित किया गया था उसे। समारोह में बहुत से लोग उपस्थित थे। रचना को भी कुछ शब्द कहने के लिए मंच पर आमंत्रित किया गया।

उसने पूर्ण आत्मविश्वास से खड़े होकर अपनी बात कही-

"भाइयों और बहनों! आज मेरे लिए बहुत गर्व का दिन है कि बचपन से देखा गया मेरा सपना अब जाकर पूरा हुआ है। क्या हुआ जो थोड़ा समय अधिक लग गया! न तो सपने देखने की कोई आयु होती है और न ही उन्हें पूरा करने की। जब भी कुछ करने की ठानो पहले मन में दृढ़संकल्प जगाओ फिर कदम बढ़ाओ अपने लक्ष्य की ओर। राह में बाधाएँ भी आएँगी और हिम्मत को तोड़ने वाले भी बहुत मिलेंगे लेकिन हमें न डरना है न डिगना है क्योंकि प्रयत्न किए बिना हम हार नहीं मान सकते और प्रयत्न करने वालों की कभी हार नहीं होती।"

इसी के साथ हॉल तालियों की गड़गडाहट से गूँज उठा।


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