त्रासदी का उपहार
त्रासदी का उपहार
जब से अपने प्रदेश के भयानक भूकम्प की खबर सुनी थी, तुषार माँ को लेकर चिंतित था। नुकसान भी तो सबसे अधिक उसी के शहर में हुआ था। टीवी, रेडियो पर खबर बराबर चल रही थी, तुषार माँ को फोन करने की हर सम्भव कोशिश कर रहा था। पर इलाके का सारा नेटवर्क, बिजली आदि सब ध्वस्त हो चुका था। न फोन लग रहा था और न ही कोई समाचार प्राप्त हो रहा था। और तो और अचानक से वहाँ पहुँचने के लिए रिजर्वेशन तक उपलब्ध नहीं था। माँ को अपने शहर में अकेला छोड़कर इतनी दूर नौकरी करने चला आया था, आज से अधिक इस बात का अफसोस पहले कभी नहीं हुआ। सीधी बस तो कोई वहाँ जाती नहीं थी लिहाजा तीन बसें बदल कर घर पहुँचने का निश्चय किया। लगातार फोन पर माँ से सम्पर्क स्थापित करने का प्रयास कर रहा था तुषार, पर सब बेकार।
अचानक एक अंजान नम्बर से उसके मोबाइल पर फोन आया। हर फोन कॉल पर किसी अनहोनी की आशंका से दिल धड़क जाता था उसका। इस बार भी धड़कते दिल से ही फोन उठाया उसने। उधर से माँ की आवाज़ सुन कर आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से खुद पर काबू ही नहीं रख पा रहा था तुषार।
"माँ तुम ठीक तो हो न? पिछले दो दिनों से लगातार फोन लगा रहा हूँ तुम्हें, लगा ही नहीं। ऊपर से रिजर्वेशन भी नहीं मिल रहा। तुम फिक्र मत करो, मैं बस से चल पड़ा हूँ और कल दोपहर को पहुँच जाऊँगा"
"मैं ठीक हूँ बेटा, सच्ची बड़ा भयानक भूकंप था। अपनी छत का एक बड़ा हिस्सा भी ढह गया। उसी में मैं फँस गई थी। बाहर निकलने की कोई जगह ही नहीं थी।"
"तुम्हें चोट तो नहीं आई माँ? अभी कहाँ हो तुम? सुरक्षित तो हो?"
"मामूली चोटें हैं बेटा, बड़ी खैर हो गई। सरकारी कैंप में हूँ मैं, जब मलबा हटा तब मुझे निकाला गया। तब से ये लोग बहुत ध्यान रख रहे हैं। तुम चिंता मत करना। मैं ठीक हूँ। उन्हीं लोगों के फोन से बात कर रही हूँ।"
"ठीक है, मैं कल पहुँचता हूँ, अपना ध्यान रखना।"
कह कर फोन रख दिया तुषार ने। उसकी जान में जान आ गई थी। बड़ी हिम्मत वाली है उसकी माँ। तुषार तो माँ की खातिर इतनी अच्छी नौकरी दूरी की वजह से छोड़ने को ही तैयार था, पर माँ ही थी जिसने दिलासा दिया कि वह कुछ माह अकेले रह लेंगी, फिर सम्भव हो तो तुषार तबादला करा ले, नहीं तो वह भी साथ चल लेंगी। पर अब तो वह बिल्कुल अकेला नहीं छोड़ेगा माँ को।
पापा तो तुषार के बचपन में ही उन दोनों को छोड़कर न जाने कहाँ चले गए। वह तो बहुत छोटा था पर माँ ने कहाँ कहाँ नहीं ढूँढा? छह महीने बीत गए थे, पिता का कोई पता नहीं चला था। गाँव में मुखिया जी और उनके आदमियों ने माँ को परेशान करना शुरू कर दिया था। वह तो यहाँ तक कहते थे कि तेरा पति मारा जा चुका है, और अब बेटे की बारी है। जब तुषार कुछ बड़ा हुआ तो माँ ने बताया था उसके पिता की मुखिया जी से कोई खानदानी दुश्मनी थी। पिताजी तो सीधे सादे थे और दुश्मनी समाप्त करना भी चाहते थे, पर मुखिया जी न जाने कौन से ज़माने के अपने पितरों के अपमान का बदला लेने पर उतारू थे, और एक दिन ये हो गया। मुखिया जी का डर इतना था कि गाँव वाले चाह कर भी माँ की कोई मदद नहीं करते थे। जब सारी आस टूट गई तो माँ ने रात के अँधेरे में तुषार के साथ सदा के लिए घर छोड़ दिया।
शहर में किराए का कमरा लेकर किसी तरह तुषार को पालती थी वो, कभी ट्यूशन पढ़ाती, कभी साड़ियों में फॉल लगाती। धीरे धीरे एक सिलाई मशीन का इंतजाम किया और रात दिन कपड़े सिलकर तुषार का भविष्य सँवारा।
तुषार जब घर के आसपास पहुँचा तो सरकारी कैंप पास ही मिल गया। शीघ्र ही माँ भी मिल गई। पर यह क्या, सदा विधवा का रूप धारण किए रहती आई उसकी माँ ने माँग में सिंदूर व मस्तक पर बिंदी सजा रखी थी। पास ही एक आदमी बैठा था जिसके साथ बड़ी ही तन्मयता से बातों में तल्लीन थी माँ।
तुषार पर नज़र पड़ते ही माँ ने उसे गले से लगा लिया और उस पुरुष से पिता के रूप में परिचय कराया। तुषार की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि वह पुरुष उसकी शंका मिटाते हुए बोले
"बेटा मैं तुम्हारी पिता ही हूँ, जब तुम छोटे थे तो गाँव के मुखिया ने मेरा अपहरण करवा लिया था। बड़ी मुश्किल से जब छूटा तो पता चला तुम लोगों ने गाँव ही छोड़ दिया था। कितना ढूँढा तुम लोगों को पर जब तुम दोनों नहीं मिले, फिर मैं भी गाँव छोड़ कर कहीं और चला गया, क्योंकि उस गाँव में मैं भी सुरक्षित नहीं था।
वो तो कल टीवी चैनलों पर तुम्हारी माँ को देखकर पहचाना तो फौरन यहाँ चला आया।"
तुषार फौरन उनके गले लग गया। इतनी बड़ी आपदा आई थी कि तुषार को अपनी माँ को खो देने का भय लग रहा था, पर इस आपदा की वजह से ही तो उसके पिताजी भी उसे वापस मिल गए थे।
