याद
याद
पिता जी दोपहर में दादी का लकड़ी वाला सन्दूक आंगन में निकाल कर कपड़े से झाड़ रहे थे । एक तरफ रंग का डब्बा और ब्रश रखे हुए थे। मैंने चुप रहना ही बेहतर समझा और अपने कमरे में खीझ कर चला गया ।
दादी को मरे पन्द्रह साल हो गए हैं । उनके कमरे में कितनी कहानियां सुनी थीं । कमरा भी क्या था,मेरे लिए तो जैसे अजायब घर । एक तरफ पड़ी हाथ वाली चक्की,दीवार के साथ लकड़ी का बड़ा संदूक जिसमे दादी दरियां,बिस्तर,विवाह में लिए दिए जाने वाले सूट,कढ़ाई की हुई तकियों के गिलाफ,रजाइयों के मखमली कपड़े,और कांसे,पीतल के बर्तन । इनमें से बहुत सा समान तो दादी की शादी का था । एक बार दादी ने उसमें से छोटे छोटे बच्चों वाले कपड़े स्वेटर निकाल कर दिखाए ।
"ये कपड़े तेरे बाप महिंदर और तेरे चाचा के हैं । अभी तक सम्भाल कर रखे हैं मैंने, देख हैं न बिल्कुल नए । बाकि तो जब तुम लोग पैदा हुए तब काम आए,बस यही बचे है,याद सम्भाल कर रखी है ।" दादी ने बड़े प्यार से उन कपड़ों को सहलाते हुए बताया था ।
कोने में पड़ा चरखा जिसकी घू घू की आवाज मैंने न जाने कितनी दोपहर सुनी थी । अड़ोस पड़ोस की बूढ़ियाँ, औरतें दोपहर में दादी के इस कमरे में आकर बैठा करती थीं । कोई चरखा कातता तो कोई दरी बुनता । हथखड्डी और दरी बुनने वाले लोहे के ब्रुश ।
किसी मुहल्ले वाली की लड़की की शादी होने वाली होती तो छह महीने पहले ही दरी बुनने का काम शुरू हो जाता । पहले चरखे पर सूत काता जाता । फिर उनके लच्छे पीढ़ी पर बैठकर दादी और अन्य स्त्रियों के द्वारा दोनों घुटनों के इर्द गिर्द लपेटे कर बनाये जाते । चरखा चलता तो उसे घूमता देख हम सब उसे हाथ लगाकर देखना चाहते । दादी टोकती,"भागो यहाँ से शैतानों,सूत खराब करवाओगे । "
फिर हम लोग दरियां बुनने वाले ब्रश छेड़ने लगते । हम बच्चों के लिए सारी चीजों में शामिल होना ही एक मनोरंजन था । कभी टोकरी में पड़े सूत के गोले छेड़ने लगते ,कभी चक्की घुमाने लगते तो कभी सन्दूक पर चढ़ कर बैठ जाते ।
उन दिनों पक्के रंग के लिए मशहूर थे 'घोड़ा ब्रांड वाले रंग' । गर्म पानी मे रंग डालकर सूत के लच्छे पकाए जाते । जैसे मांझा सूता जाता है बैसे ही दरी का सूत नीले,पीले,जमुनी और लाल रंग में रंगकर सूखने के लिए फैला दिया जाता । सब औरतें मिल कर ये सब करतीं । दरी बुनतीं,स्वेटर बुनतीं और चरखा चलाते चलाते गप्प भी लड़ातीं । उन दिनों यही औरतों का बड़ा शगल था ।
दादी की मौत के बाद उनकी बहुत सी चीजें फालतू सी हो गईं । घर पुराना होने के कारण और हमारी शादी की तैयारी के निमित्त घर को नए सिरे से बनाने की कवायद शुरू हुई । नक्शा बनवाया गया , बड़े कमरों की जगह छोटे कमरे,जिनमे लकड़ी की फिटिंग वाली अलमारियां और नए डिजाइन के दर दरवाजे । ऐसे घरों में बहुत सी पारंपरिक चीजों के लिए जगह कम थी । पिता जी और चाचा जी के बीच घर का बंटवारा हुआ तो दादी के कमरे का सामान भी बंटना ही था ।
बांटना से ज्यादा चिंता थी समान को संभालने और रखने की । चाचा समान बेचने के पक्ष में थे । चक्की,हथखड्डी का सामान और चरखा तो एक संग्रहालय को अच्छे दामों में बेच दिया ,पर सन्दूक का क्या करते । लकड़ी का बड़ा सन्दूक ,चार वाया तीन फुट चौड़ा ये सन्दूक समान से भरा था । नई दरियां,बर्तन और कुछ बिस्तर तो निकाल कर बांट लिए गए । सन्दूक पिता जी ने रख लिया । वैसे चाचा तो उसे भी किसी मंदिर में दान करना चाहते थे,पर न जाने क्यों पिता जी ने कहा कि मैं अपनी बैठक में रख लूंगा । मां और मैं भी सन्दूक रखने के पक्ष में नही थे । मैने तो शादी में भी बड़ी अलमारी नहीं ली । अब कौन रखता है बड़ी अलमारियां और सन्दूक । सारा सामान दीवार में ही बनाये गए कबर्ड में आ जाता है , अब तो बेड भी अलमारी वाले हैं । उसमें बिस्तर और बाकी सामान रखने के लिए बहुत जगह होती है । पिता जी और मन के पास भी अब ऐसा ही कमरा था , बस उसमे सन्दूक टिकाकर जाने क्यों पिता जी ने जैसे बेकार में जगह कम कर दी थी । अब उन्हें कौन समझाए । बस कोई जिद पकड़ लें तो पकड़ लें ।
जब से पिता जी रिटायर हुए तब से वो और भी सनकी से हो गए हैं । बैठे हैं तो सुबह से शाम तक सारा दिन घर मे ही बैठे रहेंगे । शुगर लेवल बढ़ गया गया है । बीपी का भी हाल ऐसा ही । इधर जब से मां को गठिया हुआ,तब से और सनक चढ़ गई है । पहले तो थोड़ा बहुत सैर करते थे,अपने दोस्तों के साथ कभी तीर्थ तो कभी कहीं । तीन चार दिन बाद लौटते । पर अब जब देखो घर मे ही पसरे हैं,सारा दिन टोका टोकी, खाने की फरमाइशें , मोबाइल और टीवी पर चलने वाले बेवजह बहसें ऊंची आवाज कर के सुनना ।
"अरे आप आवाज धीमी नही कर सकते,सारा घर आवाज से गूंज रहा हैं,रेडियो,मोबाइल टीवी सब कुछ एक साथ चल रहा है,एक चीज चला लीजिये,आपका तो बीपी बढ़ ही रहता है,अब बाकी घर वालों का भी यही हाल करना है क्या ?" मां चिल्लाती पर पिता जी दिन ब दिन झक्की होते जा रहे थे ।
हम सब की जैसे लाटरी निकल आती जब वे तीन दिन के लिए यात्रा पर चले जाते थे । कंजूसी उनके सिर पर सवार थी । पेंशन से एक पैसा न खर्च करते,डॉक्टर ने फल खाने की नसीहत दी थी और अनाज कम खाने को कहा था । पर पिताजी के लिए दुनिया भर के डॉक्टर लुटेरे और निक्कमे थे ।
"इन नए जमाने के लौंडों की क्या खाक डाक्टरी आती है,फल खाकर भी कोई पहलवान बना है, और इतने महंगे फल खाकर तो लोगों का गुजारा चलने से रहा । सेहत को ठीक रखने हो तो घर मे बनी चीज खाओ । सेवइयां हैं,पंजीरी है,देसी घी है ,इनसे बनती है सेहत ।" पिताजी की बातों सुनकर मैं समझने की कोशिश करता ,"पर पिताजी शारीरिक काम भी तो हो इन सबको हजम करने के लिए,अब तो आप सारा दिन टीवी पर बैठे रहते हैं,नींद और वजन भी पहले से ज्यादा बढ़ गए हैं,खाने को आपका जो मन हो खाइये,पर उसे पचाने के भी तो कोई इंतजाम कीजिये ।"
"अच्छा तो अब तुम मुझे अक्ल दोगे । ये आंवला,हरड़ और बहेड़ा ऐसे ही नहीं कूट कर रखा मैंने । सब लोहा लंगड़ हजम कर देता है , डिब्बा भर रखा है,तू भी खा लिया कर एक चम्मच गर्म पानी के साथ ,रात को सोते समय ,दिमाग दुरुस्त रहेगा ।" वे टका से जवाब सुनाते!
उनकी यही दिनचर्या हो गई थी ,दबा कर खाओ और सोओ ,रात में पाव भर चूर्ण फांक लो । दिन में तीन बार टॉयलट । बस खाना सोना,बैठे रहना और हगना ।
मां परेशान होकर चुप कर जाती । मुझे कहती बेटा तेरे बाप को मैं ज्यादा जानती हूँ,मुझे तो इनकी आदत है,तू क्यों अपनी जिंदगी खराब करने में लगा है,शहर में कईं नही बस जाता,इनका तो यही हाल रहेगा ।
अब बताओ कमरे में अपनी मां का पुराना सन्दूक टिकाए बैठे हैं, न उसका कोई काम न उपयोग,जगह फालतू घेर रखी है । कहो तो भड़क पड़ते हैं ।
चाचा की हार्ट अटैक से मौत हुई तो पिता जी एक दिन बैठे बैठे रोने लगे । मैंने पूछा तो कहने लगे,"लो अब हमारे परिवार में ये नई बात जुड़ गई,तेरे दादा और उनके तीन भाई खाते पीते तंदरुस्त थे । कभी किसी को कोई अटैक नही हुआ तेरे चाचा को क्यों हुआ ? मैंने समझाया था कि बेटे के पास शहर जाकर मत रह,हमें गांव ही अच्छा । कहने लगा सब कुछ बच्चों के साथ ही है । अब क्या बचा,अपनी मनमानी की बस । मैं आज चला जाऊं शहर रहने,पांच दिन नही काटूंगा । तेरी मां को ही शौक चढ़ा है कि शहर चलो,पोता पोती की पढ़ाई आसान रहेगी । मैं कहता हूँ जिसने जाना है,जाए । मैं तो यही जन्मा हूँ ,यही मरूँगा ।" जैसे वो चाचा की मृत्यु के दुख की आड़ में भी मुझे कोई चेतावनी दे रहे हों ।
दीवाली से दो दिन पहले दादी का सन्दूक आंगन में निकाल कर बैठे हैं । उसको नया रंग करवा रहे हैं । सुबह तो मैं चुपचाप रहा । पर दोपहर बाद वहां से गुजरा तो पूछ बैठा,
"अब आप इसे रंगवा क्यो रहे हैं? "
"रंगवा इस लिए रहा हूँ ताकि इसकी लकड़ी बची रहे और ये सुंदर लगे ।"
"आखिर बेच क्यों नही देते इसे,बेकार में जगह रोक रखी है आपके कमरे में । "
"तू मेरी फिक्र न कर,बहुत जगह है कमरे में,अगर इसने जगह घेर रखी है तो हमने तो पूरा कमरा ही घेर रखा है,खुद को भी बेच दी क्या ? और ये याद है मेरी मां की..उसकी आखिरी निशानी...,इसे संभाल कर रखना है मुझे ।"
"पिताजी आप हैं तो इत्ती बड़ी याद दादी की । आप अपना ध्यान रखे,खुश रहे,तंदरुस्त रहे । ये सन्दूक तो लकड़ी हैं,बेच डालिये । कमरे में खुलापन रहेगा ।"मैंने न चाहते हुए भी अपनी राय दे ही डाली ।
"ओ तू जा,बड़ा आया मुझे अक्ल देने वाला,जब तक मैं जिंदा हूँ तब तक तो न बिकेगा ये सन्दूक । हां जिस दिन मर गया चाहे बेचना,चाहे फूंक देना । " कहकर वे रंग होते सन्दूक को ताड़ने लगे ।
मां ने कोने में बैठे मुझे चुप रहने का इशारा किया और मैं जलता भुनता बाहर निकल गया ।
शायद कई चीजें कभी नहीं बदलतीं ।