Kishan Dutt Sharma

Abstract Inspirational Others

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Kishan Dutt Sharma

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व्यक्तिगत सम्बन्धों की व्यथा

व्यक्तिगत सम्बन्धों की व्यथा

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मनुष्य के इंटरपर्सनल रिलेशन के नेटवर्क (जटिल जाल) को समझना बहुत ही जटिल काम है। मनुष्य में इतनी बौद्धिक प्रज्ञा नहीं है कि वह पारस्परिक अन्तर सम्बन्धों को ठीक ठीक समझ कर उन्हें डील कर सके। इसलिए ही हम समझाए चले जाते है और कोई यथेष्ठ परिणाम नहीं आते। हम समझते ही चले जाते हैं लेकिन कोई यथेष्ठ परिणाम नहीं आते।

 हरेक व्यक्ति यह सोचकर चलता है कि मैंने जो समझाया/बताया वह लोगों ने या उस संबंधित व्यक्ति ने वैसा ही ठीक ठीक समझ ही लिया होगा। लेकिन मनोवैज्ञानिक सच्चाई कुछ और ही होती है। व्यक्ति, विषय, समय, स्थान और परिस्थिति के बारे में जैसी व्याख्या आप करते हों; यह जरूरी तो नहीं होता कि ठीक वैसी ही व्याख्या अन्य दूसरे व्यक्ति भी करते हों। मनोविज्ञान कहता है कि सबके अपने अपने परसेप्शन पर्सपेक्टिव रुझान और रुचियां होती हैं। सबका अपना दृष्टिकोण होता है। इसलिए समझाने समझने के परिणाम अलग अलग ही निकलते हैं। जरूरी नहीं कि वे परिणाम आपके सोचे हुए अनुसार वांछनीय ही हों। किसी भी माध्यम से सेवा करने के परिणाम की स्थिति भी यही है।

हम क्लियर समझते हैं या नहीं? हम क्लियर समझा सकते हैं या नहीं ? इस संदर्भ में कई बातें समझनी पड़ें। वर्तमान समय में वैश्विक स्तर की सामान्य रूप की अज्ञानता की स्थिति को देखते हुए यह कह सकते हैं मनुष्यों में ऐसा करने की सहज प्रज्ञा ही नहीं होती है। यानि कि मनुष्यों में किसी वस्तुस्थिति को क्लियर व्यक्त करने की बौद्धिक क्षमता ही ना हो। दूसरा वर्तमान समय की भागदौड़ आपाधापी की जिंदगी को देखते हुए हम कह सकते हैं कि मनुष्यों के पास इतना समय ही नहीं है कि समझने और समझाने की प्रक्रिया को पूरा किया जाए। तीसरा कारण यह हो सकता है कि मनुष्यों को इस बात का कोई चिंतन ही ना चले, या कोई लेना देना ही ना हो कि हमारे द्वारा जो भी चीजें हो रही हैं या जिन विषयों का हमसे सम्बन्ध है वे ठीक ठीक हो भी रहे हैं या नहीं। चौथा कारण निन्यानवें प्रतिशत यह हो सकता है मनुष्य के अन्दर अज्ञात परतों में कहीं ना कहीं किसी ना किसी प्रकार का भय होगा है। पांचवां कारण निन्यानवें प्रतिशत यह हो सकता है कि मनुष्य अपनी ही बौद्धिक समझ को ही सबसे श्रेष्ठ, अच्छा और उपयुक्त समझकर मानकर चलता है। छटवां कारण पचास प्रतिशत स्थितियों में यह हो सकता है वहां कुछ समझाने की आवश्यकता ही नहीं होती है, उल्टा समझने की जरूरत होती है। क्योंकि हम जहां जिन्हें समझाने का भरसक प्रयास कर रहे होते हैं वहां तो वह समझ पहले से ही मौजूद रहती है। फिर भी अज्ञानता वश हम नॉन स्टॉप समझाए चले जाते हैं। 

सातवां कारण जो पचास प्रतिशत तक हो सकता है, वह यह कि आत्माओं की किन्हीं अतीत या भविष्य की आण्विक ऊर्जाओं का प्रतिरोध। वह बहुत गहरा और बुद्धि की समझ से परे की बात होती है। उसे केवल ही केवल स्वीकार ही करना पड़ता है। उसमें समझने और समझाने की सब बातें व्यर्थ हो जाती हैं। आठवां कारण जो भी साठ प्रतिशत होता है। सोच व संस्कारों के स्तर पर एक प्रकार की आन्तरिक विधि व्यवस्था से बिल्कुल ही दूसरे प्रकार की विपरीत व्यक्तित्व (संस्कारों) या आन्तरिक विधि व्यवस्था का होना। उस स्थिति में भी हम कुछ नहीं कर सकते। वह तो रेत से तेल निकालने की (व्यर्थ समझाने) की व्यर्थ कोशिश करना हो जाता है।

ऐसी परिस्थिति में क्या करना चाहिए? क्या हमें अपनी अयोग्यता को स्वीकार कर समझाना बन्द कर देना चाहिए? क्या और और समझाते ही रहना चाहिए। ज्ञान तो यही कहता है कि हमें समझाना बन्द कर देना चाहिए। ज्ञान यही कहता है कि हमारी बौद्धिक सीमाएं हैं। यह जरूरी नहीं कि हम हर एक विषय या परिस्थिति या व्यक्ति को बिल्कुल ठीक शत प्रतिशत ही जानते समझते हों। ज्ञान यही कहता है कि हमें अपनी बुद्धि की सीमाओं को समझना चाहिए। बुद्धि यदि व्यर्थ और दूसरों की तरफ चलने लगे तो अन्तर व्यक्तिगत सम्बन्धों को जटिल जाल बना देती है। हमें यह समझ लेना चाहिए बहुत कुछ अतीत और भविष्य का आण्विक स्तर पर ऐसा है जिसे हम नहीं जानते। 

मगर फिर भी हम ऐसे समझाए चले जाते हैं जैसे कि उदाहरण के तौर पर.. यशोदा मैया कृष्ण को समझाए चली जाती है। यशोदा कृष्ण की पूरी वस्तुस्थिति से अवगत हो जाती है फिर भी अज्ञानता वश समझाए ही चली जाती है। कृष्ण कितना ही यशोदा को समझाएं फिर भी यशोदा समझती ही नहीं। कृष्ण चाहे गोकुल में हो चाहे वृंदावन में हो चाहे मथुरा में हो, पर यशोदा उसे समझाए हो चली जाती है। कृष्ण की आध्यात्मिक स्थिति से यशोदा कितनी ही क्यों ना परिचित हो फिर भी वह समझाए ही चली जाती है। लेकिन एक समय आता है जब उसकी अज्ञानता की चादर हट जाती है और वह समझने समझाने से मुक्त हो जाती है।

यह स्थिति मनुष्य के मन के बारे में दर्शाई है। मनुष्य के साथ भी लगभग ऐसा ही है। मनुष्य का मन भी कुछ ऐसा है कि वह चलेगा जरूर। मनुष्य को चूंकि आध्यात्मिक स्थितियत्मक प्रज्ञा की शक्ति का अनुभव नहीं है इसलिए वह कुछ ना कुछ सोचेगा जरूर। वह समझाए ही चला जाता है। वह इसी मानसिक स्थिति में रहता है कि अभी तो कुछ कहा नहीं..अभी तो कुछ सुना नहीं।


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