वो उस दिन जो तुमने झूठ न कहा होता
वो उस दिन जो तुमने झूठ न कहा होता
कभी कभी हमारे जीवन में ऐसी घटनाएं घट जाती हैं जो हमारा जीवन ही बदल देती हैं। सच उतना असरकारी नहीं रहता जितना कभी कभी किसी का झूठ असर कर जाता है।
बताता हूं, बताता हूं। जरा एक बार पूरी भूमिका तो बना लूं।और फिर सब कुछ आपसे बताऊंगा।
मैं अपने मां पिता जी की इकलौती संतान था। बड़ी मन्नतों के बाद,मां पिता जी की शादी के कई साल बाद मैं पैदा हुआ था। तो जाहिर सी बात है मैं बचपन से ही बहुत लाड़ दुलार में पला था।इन सबसे हुआ ये कि मैं जिद्दी और गुस्सैल हो गया। हर बात मेरे कहते ही पूरी हो जाती। मेरी हर इच्छा पूरी की जाती। बस एक बात अच्छी थी कि पढ़ाई लिखाई में मेरा दिमाग तेज था। हर कक्षा में मैं प्रथम आता था। पढ़ाई में तेज होने का फायदा ये होता था कि मेरी दूसरी शैतानियां और गलती उसकी आड़ में छुप जाती थीं। मां पिता जी को तो वैसे भी मेरी कोई गलती नज़र नहीं आती थी। आस पास की औरतें यदि कभी किसी बात पर मां से मेरी शिकायत भी करतीं तो मां उनको ही भला बुरा कहने लगतीं।
पांचवीं क्लास तक तो मैं घर के पास के स्कूल में ही पढ़ा।छठवीं क्लास में मेरा नाम शहर के एक बड़े और नामी स्कूल में करा दिया गया। ये एक बड़ा स्कूल था। यहां का माहौल भी अलग था।बहुत सारे बच्चे और बहुत सारे टीचर थे। स्कूल के प्रिंसिपल बहुत ही सख्त मिजाज थे। बच्चे तो बच्चे टीचर तक उनसे बहुत डरते थे। मेरा स्कूल में अभी एडमिशन हुआ ही था। स्कूल में मेरा कोई दोस्त भी नही बना था। मैं अपने गुस्सैल और बिगड़ैल स्वभाव की वजह वैसे ही अलग थलग रहता था। पढ़ाई में तेज होने की वजह से एडमिशन में कोई दिक्कत नहीं हुई लेकिन अपने स्वभाव की वजह से मैं अकेला ही रहता था।
ऐसे ही एक दिन मध्यांतर में मैं अपना टिफिन करके खाली था। अभी अगला पीरियड शुरू होने में टाइम था तो खाली समय बिताने के लिए मैं खेल के मैदान में चला गया। वहां बच्चों के लिए तरह तरह के झूले लगे हुए थे। कई बच्चे वहां खेल रहे थे,कुछ झूले झूल रहे थे। एक दुबली पतली लड़की झूले पर चढ़ने का प्रयास कर रही थी।चढ़ती तो उसके पैर नीचे न पहुंच पाते। मुझे देख कर बोली " अरे राजू,मुझे झूला झुला दे न।" मैंने उसकी बात अनसुनी कर दी। मैं आगे बढ़ रहा था कि वो पीछे से आई और मेरी शर्ट पकड़ कर खींचते हुए कहने लगी " झूला झुला दे न राजू।"मुझे गुस्सा आ गया और मैंने उसे जोर से धक्का दे दिया। वो बेचारी एक तरफ गिर गई। एक पत्थर से उसका होंठ काट गया।आगे का एक दांत जो शायद पहले से हिल रहा था,वो भी टूट गया। उसके मुंह से खून आ गया। अब मैं काफी डर गया। डर के मारे मैं तुरंत भाग कर अपनी क्लास में आकर सीट पर आकर बैठ गया। मैं डर के मारे कांप रहा था। मुझे लगा अब वो लड़की मेरी शिकायत कर देगी और मुझे सजा मिलेगी। मेरी आंखों के आगे प्रिंसिपल साहब का खूंखार चेहरा घूम रहा था।मैं बैठा चुपचाप इंतजार कर रहा था कि मुझे अब बुलाया गया या तब। राम राम करके दिन बीत गया। कोई अनहोनी नहीं हुई। मैं घर आ गया। रात तक तो डर के मारे मुझे बुखार आ गया। दो दिन मैं स्कूल नहीं गया।दो दिन बाद मैं डरते डरते स्कूल गया तो देखा मेरी सीट के पास ही वो बैठी हुई थी।मुंह पर ऊपरी होंठ पर बैंडेज लगा हुआ था।मुझे देख कर वो मुस्कुराई तो मुझे राहत हुई,मैं भी हल्के से मुस्कुरा दिया।बाद में पता चला वो भी मेरी ही क्लास में पढ़ती थी और उसका नाम था रुनझुन। मैंने बाद में उससे पूछा कि उसने मेरी शिकायत क्यों नहीं की। तो वो बड़े बुजुर्गों की तरह बोली "शिकायत करके क्या होता? तू सुधार थोड़ी न जाता।"उसकी इस बात ने मेरे ऊपर जाने क्यों बहुत असर किया। मैं धीरे धीरे बदलने लगा। अब मेरा गुस्सा भी कम होने लगा। बात बात पे गुस्सा करने वाला मैं अब काफी समझदार हो गया। पढ़ाई में तो होशियार था ही। अब मेरे कई दोस्त बन गए। पर मेरी सबसे अच्छी दोस्त बनी रुनझुन।
आज उस घटना को घटे कई साल हो गए। मैं अब बुजुर्ग हो चुका हूं। रुनझुन से दोस्ती अब रिश्ते में बदल चुकी है। जी हां,रुनझुन अब मेरी पत्नी है।अगले साल हमारी शादी को पच्चीस साल हो जायेंगे। उसके ऊपरी होंठ पर चोट का निशान आज भी है। कभी कभी सोचता हूं,"क्या होता अगर रुनझुन ने उस दिन झूठ न बोला होता? क्या मैं इतना बदल पाता ? क्या मुझे इतनी अच्छी दोस्त मिल पाती ? जिसने मेरा जीवन ही बदल दिया।