" ताजमहल "
" ताजमहल "
जब भी कभी मैं अपने साथी महेश जी के घर जाता हूं तो वो घर कम और एक मकबरा ज्यादा लगता है। मेरी पत्नी मुझे मेरे ऐसे विचारों के लिए बुरा भला भी कहती है लेकिन मैं क्या करूं ?मैं भी आदत से मजबूर हूं।
महेश जी और मैं लगभग एक साथ ही नौकरी में आए थे। महेश जी की शादी हो चुकी थी और उनकी पत्नी भी सरकारी नौकरी में थीं। मैं शहर का लड़का,तो मेरे रहने के तौर तरीके थोड़ा अलग थे। मैं हर सप्ताह नई नई पिक्चर देखने जाता। नए कपड़े बनवाता। इधर महेश जी नई शादी होने के बावजूद,पति पत्नी दोनों सरकारी नौकरी में थे फिर भी पैसों को दांत से पकड़ कर रखते थे। जब तक बहुत जरूरी न हो नए कपड़े नहीं बनवाते। पैंटों को कहीं से कट फट जाने पर रफू करा कर काम चला लेते थे। सरिता भाभी भी उनकी इस कंजूसी से परेशान थीं। कभी कभी कह भी देती थीं कि ' देखिए, राजेश भैया नए कपड़े भी बनवाते हैं,नए सिनेमा भी जाते हैं।' तो उनकी बात को महेश जी मेरी नासमझी कह कर काट देते थे। हर बार कहते पैसा बहुत मुश्किल से कमाया जाता है सो खर्च भी मुश्किल से ही करना चाहिए। पति पत्नी दोनों की तनख्वाह में से आधे से अधिक पैसे महेश जी ने विभिन्न बैंकों और पोस्ट ऑफिस की बचत योजनाओं में लगा रखे थे। महीने का राशन का सामान बनिए की दूकान से उधार में लेते और बहुत तकाजा करने पर ही चुकाते। ऑफिस में यदि किसी साथी को कभी अचानक पैसों की आवश्यकता पड़ जाती तो मदद तो जरूर करते लेकिन उससे ब्याज भी वसूलते। मुझे उनकी ये आदत अच्छी नहीं लगती थी लेकिन मैं कर भी क्या सकता था?
बाद में गुजरते वक्त के साथ मेरी भी शादी हो गई। हम सब लोग अपनी अपनी नौकरी और ज़िन्दगी में व्यस्त हो गए। महेश जी के एक लड़का और लड़की हुए और मेरे एक लड़का। हम साथ के थे तो परिवार में भी घनिष्ठता हो गई। बच्चों और महिलाओं में भी मित्रता हो गई। बेटी उनकी बड़ी थी तो जैसे ही उसने बारहवीं की परीक्षा पास की महेश जी ने एक ठीक ठाक लड़का और परिवार देख कर उसकी शादी कर दी। मैंने कहा भी कि लड़की को ग्रेजुएशन तो करा देते। इस बार भी उनका जवाब तैयार था ' लड़की ब्याह कर जितनी जल्दी अपने घर पहुंचे अच्छा है और खर्चा भी कम होगा।' मेरा बेटा अक्षय और महेश जी का बेटा मनीष एक साथ के थे। बारहवीं के बाद मेरे बेटे का इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन हो गया तो वो बाहर चला गया। मनीष को महेश जी ने बाहर नहीं भेजा। मनीष को भी ये अच्छा नहीं लगा उसने इस बात का विरोध भी किया लेकिन महेश जी ने उसे भी अपने तर्कों से चुप करा दिया और शहर के डिग्री कालेज में बीएससी में नाम लिखा दिया। अब महेश जी का एक ही सपना था शहर में अपना एक आलीशान मकान बनाने का। बहुत जोड़ जुगाड़ कर के शहर से दूर एक ज़मीन खरीदी और अपने हिसाब से काफी पैसे खर्च करके मकान भी बनवाना शुरू कर दिया। एक दिन अचानक सरिता भाभी को दिल का दौरा पड़ा।डॉक्टर अस्पताल कहीं न जा सके। सरिता भाभी अचानक ही दुनिया छोड़ गईं। इस बात का जाने कैसा सदमा लगा महेश जी को कि वो भी लकवे की चपेट में आ गए। अब अपने ही बनवाए घर के एक कोने में बिस्तर पर पड़े रहते हैं। मुंह से आवाज भी नहीं निकलती। जब कभी उनसे मिलने जाओ तो बस देखते ही आंखों से लगातार आंसू टपकने लगते हैं। जिस घर को इतनी साध से बनवाया। उसमें सरिता भाभी तो रह भी न सकीं और खुद महेश जी अपने ही बनवाए ताजमहल में लगभग निर्जीव से पड़े हुए हैं।