" बूढ़ा बरगद "
" बूढ़ा बरगद "
सुरेश कल से बेहद खिन्न था। उसे उसका खुद का निर्णय खुद को ही नागवार गुजर रहा था। पिता जी को अपनी गाड़ी में बैठा कर छोटे भाई रमेश के पास छोड़ने के लिए पड़ोस के शहर ले आया था। रात बहुत हो चुकी थी, भाई ने रोका तो वो रात को वहीं रुक गया। शायद पिता जी का मोह था या अपने खुद के निर्णय से असहमति, वजह जो भी हो लेकिन वो रुक गया। पिता जी तो खाना खा कर थकान के कारण जल्दी ही सो गए। लेकिन सुरेश की आंखों से नींद गायब थी। लेटे लेटे यूं ही मोबाइल चला रहा था कि उसकी पसंदीदा कवियत्री आख्या जी का एक वीडियो नजर आ गया। कान में ईयरफोन लगा कर कविता का पाठ सुनने लगा। कविता का शीर्षक था "बूढ़ा बरगद"। कविता सुनते सुनते उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। कवि ने भाइयों के बीच घर के बुजुर्गों के बंटवारे का जो मार्मिक वर्णन किया। उसे सुन कर सुरेश का कलेजा मुंह को आ गया।
उसे उसका बचपन याद आ गया। उसे याद है उसके पिता जी चार भाई थे। घर एक ही था बाहर से, लेकिन अंदर चारों भाइयों की रसोई अलग अलग थी। उसके बाबा घर के बाहर बरामदे में बैठे रहते थे और अंदर से नियम से तीन तीन महीने करके चारों भाइयों की रसोई से उनके लिए खाना आता था। घर की औरतों में कई बार इस बात के लिए उसने झगड़ा होते देखा था कि आज मेरी नहीं फलाने की खाना देने की बारी है। सुरेश तब बच्चा था, लेकिन अब कविता सुन कर उसे लगा "हे भगवान, वो भी तो यही करने जा रहा था। " पत्नी ने सुझाया था कि मां बाप दोनों भाइयों की जिम्मेदारी होते हैं कोई अकेले उनकी ही नहीं। उसने भाई से फोन पे बात की कि कुछ दिन पिता जी को तुम्हारे पास छोड़ देता हूं। उनका भी मन बहल जायेगा। पिता जी को जब भाई के पास कुछ दिन रह आने को कहा तो वो बोले तो कुछ नहीं लेकिन उनकी आंखें जैसे कह रही थीं कि मुझे मेरी जड़ों से दूर न करो। चलते समय कार में पिता जी ऐसे बैठे जैसे किसी बच्चे को जबरदस्ती बोर्डिंग स्कूल भेजा जा रहा हो। "हे भगवान, मैं ये क्या करने जा रहा था? नहीं अब ऐसा नहीं होगा। इतिहास फिर से नहीं दोहराया जाएगा। पिता जी का जो मन होगा, वही होगा। पिता जी कल सुबह उसके साथ वापस घर जायेंगे। "
अब उसका मन काफी हल्का हो गया था। उसने देखा पिता जी नींद में मंद मन मुस्का रहे थे। शायद नींद में कोई सपना देख रहे हों। सुरेश ने मन ही मन आख्या जी को धन्यवाद किया और वो भी अब नींद की आगोश में आ गया। अब एक नई सुबह होने को थी।