वो सुहाने दिन
वो सुहाने दिन


सबसे पहले मेरे घरवालों ने नोटिस किया था उसे, बुलेट चलाते हुए या डॉगी को घुमाते हुए।
मम्मी और भाई दोनों मिलकर उसकी हँसी उड़ाते थे...
कारण ? कारण था, अजीब सा दिखने वाला उसका डॉग और कभी लाल, तो कभी नीले, कभी ब्राउन तो कभी चॉकलेटी रंग में रंगे उसके बाल !
कुछ भी हो मगर बंदा था बड़े स्टैण्डर्ड का...कपड़े भी काफी अच्छे पहनता था।
मैंने उसे तब नोटिस किया, जब लॉकडाउन लगा था वरना मुझे कहाँ फुर्सत ! प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी मैं...सुबह से शाम, पुरा दिन कोचिंग और लाइब्रेरी में गुजर जाता था फिर शाम को घर आकर थकान के मारे नींद ही सूझती थी मगर लॉकडाउन के कारण सब कोचिंग सेंटर भी बंद हो गये थे तो अब घर पर रहकर ही पढ़ाई कर रही थी।
अब हर शाम छत पर ही वॉक कर लेते थे हम सब, तो ऐसे ही एक दिन वॉक कर रहे थे कि वो अपने डॉग को घुमाते हुए मेरे घर के नीचे से गुजरा।
बस उसे देखकर मम्मी और भाई दबे स्वर में हँस पड़े, तब देखा उसे पहली बार लेकिन पता नहीं क्यों, मुझे उस पर हंसी नहीं आयी...बस टकटकी लगाये उसे देखती रही।
फिर तो कई बार दूर से देखा उसे चोरी-छुपे, चेहरा एकदम साफ़-साफ़ नहीं दिखता था मगर ना जाने क्यों उसका अंदाज दिल को भा गया था।
अब उसकी आवाज़ सुनने को मन मचलने लगा था लेकिन वो तो कानों में इयरफोन लगाये गुजरता था, खैर आवाज़ सुनने को नहीं मिलती तो ना सही, उसे देखकर ही मन को तसल्ली तो मिल ही जाती थी...
रूह को अजीब सी ठंडक मिलती थी उसके दीदार से।
और फिर एक बैचैन दिल का अरमान पूरा हुआ... उसकी आवाज़ सुनने को मिली !
कितनी खुश हो गयी थी मैं...कितने ही दिन चहकती फिरी थी...आवाज़ उसकी सुनी थी मगर मानों मेरी खामोशी को शब्द मिल गये थै !
और एक दिन फिर से एक चमत्कार हुआ ! ना सिर्फ उसकी आवाज़ सुनी बल्कि उसके ठहाके भी कानों में गूँजें...मिश्री से मीठे ठहाके !!
पता नहीं किससे फोन पर बातें करते-करते वो मेरे घर के बाहर लगे नीम के पेड़ की छाँव तले आ खड़ा हुआ था और देर तक बात करता रहा।
हँस वो रहा था और खुशी मेरे चेहरे से टपक रही
थी...और फिर वो जाने लगा, मन तो किया कि रोक लूं उसे कि मत जाओ...मुझसे नही, फोन पर ही सही, बस बिना रुके ऐसे ही बात करते जाओ और मैं मंत्रमुग्ध सी यों ही तुम्हारी बातें सुनती जाऊँ...
पर मैं ऐसा नहीं कर सकी और वो चला गया। फिर तो हर शाम मैं उसके आने के टाइम पर अपने सारे काम छोड़कर उसे एक नज़र देखने के लिए सज-संवर कर तैयार घंटों खिडक़ी के सहारे खड़ी रहती और फिर जब वो आता तो बस निहाल हो जाती मैं...
एक ही गली के अंतिम छोर पर वो रहता तथा शुरूआती छोर पर मेरा घर था।
शायद उसने भी मुझे नोटिस किया था, उसके गली के चक्कर बढ़ने लगे थे और देर तक मेरे ही घर के सामने टहलना भी !
शुरू में तो मुझे लगा कि मेरा वहम है,मगर नहीं...अब वो भी मुझे देखने वक्त-बेवक्त आने लगा था, कई बार रात में भी मेरी गली के फेरे लगाये उसने !
ऐसे तो नजरें कभी नहीं मिलायी थी हमनें मगर एहसासों का क्या करते !
और फिर लॉकडाउन खत्म हुआ और उसका दिखना भी बंद हो गया...
एक आखिरी बार देखा था उसे बाइक पर जाते हुए, तब पता नहीं था कि फिर कभी नज़र नहीं आएगा वो !
उसके इन्तज़ार में कई शाम बितायी मैंने, खिड़की से सिर टिकाकर तो कभी बाल्कनी में घंटों खड़े-खड़े पर वो लौटकर नहीं आया...
बहुत लंबा समय हो गया उसे देखे हुए लेकिन पता नहीं क्यों, अब भी उसके वापस आने का इंतज़ार है मुझे।
अब भी चाय का कप हाथ में लिए, बाल्कनी में लगे झूले पर झूलती हुई उसे बेइंतिहा याद करती हूँ मैं...
पता नहीं, पहली नज़र का प्यार था या मात्र आकर्षण पर ये बेचैन आँखें अब भी ढूँढ़ती है उसे।
मेरी तन्हा शामों का साथी था वो, मेरे अकेले, उदास लम्हें थोड़े से रूमानी हो उठते थे उसे देखकर।
मन ऐसे ही खुश हो जाता था बे-फिजूल...पर अब वो मेरी गली में नहीं आता, घर बदल लिया या रास्ता, मैं नहीं जानती !
मगर पता नहीं कैसा-कैसा दर्द सा होता है दिल में, शायद कच्ची, अधूरी, अनकही मोहब्बत के कारण !
अब दिल का हाल बताऊं भी तो किसको, दर्द का जो कारण था, उसने तो बिना किसी कारण मेरी गली में आना ही छोड़ दिया।