बैरी चाँद
बैरी चाँद


आज फिर दिल उदास था....अकेलेपन का एहसास बार-बार आँखें भिगो रहा था।
दिन तो जैसे-तैसे ऑफिस वर्क में बीत गया मगर रात होते-होते दिल और भारी होता गया।
खाना खाने का मूड नहीं था, बस अदरक वाली चाय बनायी और छत पर चली गयी।
कानों में इयरफोन लगाये, अपना फेवरिट गाना लगा दिया- 'अजे तक्क मेनू ऐसा यार नहियो मिल्या...जिदे ते यकीं करा अखां बंद कर के.. बड़े मिले ने मेनू दो शक्लां वाले'.....
जिन्दगी की कड़वी सच्चाई को मानों शब्द मिल जाते थे, इसे सुनकर...
आँखो से गंगा-जमुना बह निकली...आँसू बहाते अपने रूम में आ गयी लेकिन तभी देखा कि हमेशा की तरह कोई मेरे रूम की खिड़की में नज़र जमाये मुझे ताक रहा है !
मैं झल्लाती हुई उठी-" क्या यार, जरा सी भी प्राइवेसी नहीं !!"
और तुरंत खिड़की के पर्दे खींच लिये मगर थोड़ी ही देर में बंद कमरे में दम घुटने लगा।
ताज़ी हवा आने का एकमात्र रास्ता खिड़की ही थी, मजबूर होकर फ़िर से खिड़की खोलनी पड़ी।
वो बेशर्मो की तरह अभी तक वहीं मौजूद था...खिड़की खुलते ही फिर से मेरे चेहरे को घूरने लगा !
मैंने गुस्से में सिर से पैर तक चादर ओढ़ ली और सो गयी।
अब इसके मारे खुल कर रो भी नहीं सकती और चैन से सो भी नहीं सकती...
महीने में पन्द्रह दिन तो ये मुझे घूरता ही था !
उसकी उपस्थिति मेरे अकेलेपन की पीड़ा को और गहरा कर देती...उसे देखकर मन और भी ज्यादा बेचैन हो जाता।
कहाँ जाऊं इसकी नज़रों के तीर से बचकर...रात को तन्हाई के आलम में, अकेलेपन से घबराकर रोने का मन करता तो मेरे चेहरे पर चमकते मोतियों से आँसू देखता...मुझे ऐसा लगता मानों हँस रहा हो वो मेरी ऐसी हालत पर या तरस खा रहा हो...मैं तिलमिला कर रह जाती...
मेरी इससे कभी नहीं बन सकती !!
तो क्या करूँ? घर बदल लूं??
लेकिन क्या घर बदल लेने से ये मेरा पीछा करना बंद कर देगा?
सच तो यही है कि चाहे घर बदल दूं, मोहल्ला बदल दू या चाहे शहर..ये 'बैरी चाँद' मेरा पीछा कभी नहीं छोडेगा !